6 जुलाई, 1999: पूरा हिंदुस्तान बिना पलक झपकाए टेलीविज़न के सामने बैठा था, चारों तरफ एक गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी, ऐसा लग रहा था मानो पूरा देश उस निडर सैनिक का सम्मान कर रहा हो जो हमारे और दुश्मन के बीच ढाल बनके खड़ा था। श्री गिरधारी लाल बत्रा के दिल की धड़कने तब बढ़ गयी जब उन्होंने अपने बेटे विक्रम बत्रा को NDTV पर इंटरव्यू देते देखा। जब विक्रम ने रिपोर्टर से कहा कि उन्होंने अपनी जीत का विजयी वाक्य, “ये दिल मांगे मोर” रखा है, तब उनके पिता को इस बात पर थोड़ी हँसी आई। लेकिन उनके पिता को झटका तब लगा जब उन्होंने कहा कि, “मैं आशा करता हूँ कि सरकार और समाज जंग में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों का ख़याल रखे”। वे अपने बेटे को अच्छी तरह जानते थे, विक्रम की इस बात से उन्हें अपने बेटे के इरादों का एहसास हो गया था, लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। वे समझ गए थे कि शायद अब वे अपने बेटे से कभी न मिल पाए, यह बात सोचकर उनकी आँखें भर आई। वो बहादुर सिर्फ 25 साल का था जब उसने भारत को उसकी ज़मीन के साथ-साथ खोई हुई इज्ज़त भी वापस लौटाई। उनका भाई उनका इंतज़ार कर रहा था, उनके पिता को उनके वापस आने की उम्मीद कम थी लेकिन फिर भी अपने बेटे को जिंदा देखने की उम्मीद मरी नहीं थी, उनकी माँ बस अपने बेटे की सलामती की दुआएं मांग रही थी। लेकिन विक्रम के इरादे कुछ और ही थे, वे दुश्मन के कब्ज़े से अपनी चौकियाँ छुडाये बिना वापस आने को तैयार नहीं थे। उन्हें चिंता अपने परिवार की नहीं थी, चिंता थी तो सिर्फ देश की। इसी मातृभूमि की रक्षा के लिए वे जिए और इसी मातृभूमि की आज़ादी के लिए शहीद हुए।
आम से ख़ास तक
विक्रम का जन्म 9 सितम्बर 1974 के दिन पालमपुर, हिमाचल प्रदेश में हुआ। उनके परिवार में उनके अलावा उनके माता-पिता, उनकी दो बहने, एक जुड़वाँ भाई और थे। विक्रम का बचपन बहुत ही सामान्य तरीके से बीता।
उनकी माँ और पिता दोनों ही सरकारी स्कूल में शिक्षक थे, बचपन में उनके हाथ ख्वाइशों से ज्यादा ज़रुरतों ने बाँध रखे थे। उनकी माँ श्रीमती कमल कांता बत्रा उनकी पहली शिक्षक थी और इसलिए वे बचपन से ही अपनी माँ के बहुत करीब थे। बाद में उनका दाखिला पालमपुर के D.A.V पब्लिक स्कूल और उसके बाद केंद्रीय विद्यालय में करवाया गया।
खेल कूद की तरफ उनका झुकाव बचपन से ही था, उन्होंने टेबल टेनिस में अखिल भारतीय केन्द्रीय विद्यालय संघ में अपनी स्कूल का प्रतिनिधित्व किया था। यही नहीं वे कराटे में भी ग्रीन बेल्ट हासिल कर चुके थे। आत्मविश्वास और निडरता उनकी पसंद और स्वभाव का एक हिस्सा थी। बारहवीं पास करते ही उन्होंने NDA (National Defence Academy) की प्रवेश परीक्षा दी लेकिन वे उसमें दो बार फेल हो गए। सेना में जाने का सपना टूटने पर वे थोडा निराश तो हुए लेकिन उन्होंने अपने आप को संभाला और उम्मीद का हाथ फिर से थाम लिया।
उन्होंने अपनी पढ़ाई ज़ारी रखते हुए चंडीगढ़ के DAV कॉलेज से मेडिकल साइंस में ग्रेजुएशन करने का फैसला किया। वहाँ उन्होंने नेशनल कैडेट कोर के एयर विंग में हिस्सा लिया और NCC में “C” सर्टिफिकेट हासिल किया। NCC ने उनके सेना में जाने के इरादे को और मजबूत कर दिया।
लेकिन जैसे ही ग्रेजुएशन पूरी हुई उन्हें मर्चेंट नेवी में हॉन्ग कोंग की एक कंपनी में नौकरी मिल गयी। उन्होंने यह नौकरी करने का फैसला कर लिया था, यहाँ तक कि उनकी वर्दी भी सिली जा चुकी थी लेकिन जिस पर देश की सेवा का जूनून सवार हो वह और कुछ करने को राज़ी नहीं होता और इसलिए ऐन वक़्त पर उन्होंने अपना इरादा बदल लिया। सेना में जाने के सपने को पूरा करने के लिए वे अब एक अलग रस्ते पर चल पड़े थे । उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से M.A. करने का फैसला किया और साथ ही साथ सम्मिलित रक्षा सेवा परीक्षा (CDS) की तैयारी शुरू कर दी, अपनी पढ़ाई का खर्चा खुद उठाने के लिए उन्होंने चंडीगढ़ के ही एक ट्रेवल एजेंसी में ब्रांच मेनेजर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। 1996 में उन्होंने वो कर दिखाया जिसका उन्हें और उनके परिवार को सालो से इंतज़ार था, उन्होंने पहले CDS और फिर SSB में बेहतरीन प्रदर्शन करके अपना सपना पूरा किया। अपनी मेहनत और काबलियत के बल पर उन्होंने जो कर दिखाया वो काबिले तारीफ है। पढ़ाई में वे हमेशा औसत रहने वाले, दो बार NDA में फेल होने वाले कैप्टेन विक्रम बत्रा सिर्फ अपने शौर्य की वजह से सबके चहेते ही नहीं हैं बल्कि अपनी मेहनत की वजह से भी वे हर उस हिन्दुस्तानी के दिल में जगह बना चुके हैं जिसने अपने जीवन में कभी न कभी असफलता का सामना किया है। सेना में जाने का सपना रखने वाला हर हिन्दुस्तानी अपने आप में कैप्टेन बत्रा को देखता है। 1996 में उन्होंने इंडियन मिलिटरी अकादमी में मानेकशा बटालियन में दाखिला लिया। लेकिन शौर्य का रास्ता कभी आसान नहीं होता, IMA से एक आम आदमी बहुत ख़ास बनकर निकलता है। उन्नीस महीने की मुश्किल ट्रेनिंग हर सैनिक को निखारती है, उन्हें पत्थर से हीरा बनाती है और फिर 6 दिसम्बर 1997 के दिन राष्ट्र को एक जाँबाज़ अफसर मिला।
अब वे सिर्फ विक्रम बत्रा नहीं लिफ्टिनेंट विक्रम बत्रा थे। विक्रम का चयन जम्मू और कश्मीर राइफल्स (13 JAK RIF) की 13वी बटालियन में हुआ।
लेकिन ट्रेनिंग अभी पूरी नहीं हुई थी, उन्हें आगे की ट्रेनिंग पूरी करने के लिए जबलपुर, मध्य प्रदेश भेजा गया और फिर एक महीने की ट्रेनिंग के बाद उन्हें जम्मू और कश्मीर में बारामूला के छोटे से कस्बे सोपोरे में भेजा गया। अब विक्रम को अपना सपना पूरा होते दिख रहा था, उन्हें मातृभूमि की सेवा का मौका मिल गया था।
ऑपरेशन विजय
कारगिल, हिमालय की गोद में बसा एक छोटा सा गाँव । जहाँ देखो वहाँ साफ़ पानी के सुन्दर झरने, ज़मीन पर बिछी घास की हरी चादर पर मोतियों जैसे चमकती औस की बूंदें, घाटियों को घेरे पीले और लाल जंगली गुलाब, चिडियों की चहचहाहट, ये मंज़र किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। गर्मियों में कारगिल जन्नत से कम नहीं है। भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा (LOC) कारगिल से होकर गुज़रती है और इसलिए, यह क्षेत्र सुरक्षा की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। वहाँ की आबो हवा और स्थल आकृति की वजह से वहाँ सर्दियाँ गुज़ारना बहुत मुश्किल है और इसिलिए सर्दियों में अपनी चौकियाँ छोड़ देना दोनों देशों के बीच एक अनकहा समझौता था।
3 मई 1999 को कारगिल गाँव में रहने वाले एक चरवाहे ने भारतीय पोस्ट पर पाकिस्तानी घुसपैठ की शिकायत दर्ज की। 5 मई को एक पेट्रोलिंग टीम को सच्चाई का पता लगाने भेजा गया। पेट्रोलिंग के लिए गए 5 भारतीय सैनिकों को पाकिस्तानी घुसपैठियों ने तडपा-तडपा कर मार दिया। इस बात की खबर मिलते ही भारतीय सेना ने बिना देर किये अपनी टुकडियों को कश्मीर से कारगिल भेज दिया।
दूसरी ओर देश को स्थिति की गंभीरता का कोई आभास नहीं था, ये तो पता था की सरहद पर तनाव के हालात हैं, लेकिन ये तनाव युद्ध का रूप ले लेगा ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। भारत दुश्मन के ना-पाक इरादों से वाकिफ नहीं था, क्योंकि जहाँ एक ओर लाहौर समझौता ने तनाव की हर गुन्जाइश को लगबग ख़त्म ही कर दिया था, वहीं दूसरी ओर ये घुसपैठ उस समझौते के कुछ महीनों बाद ही हुई थी।
इस हमले का उद्देश्य लद्दाख और कश्मीर के बीच संपर्क को तोड़कर भारतीय सेना को सियाचिन से खदेड़ना था। पाकिस्तानी मुजाहिदीनो के पास ज़रूरत के सारे हथियार होने के साथ-साथ युद्ध कला का भी ज्ञान था और इसीलिए भारतीय सेना को ये समझने में वक़्त नहीं लगा कि इस हमले में पाकिस्तानी सेना का हाथ है। हालाँकि, पहले तो पाकिस्तानी सरकार ने इस बात को ख़ारिज किया लेकिन बाद में उन्होंने यह मान लिया की ये हमला जिसका कोडनेम “ऑपरेशन बद्र” था पाकिस्तानी सरकार और सेना की ही सोची समझी चाल थी।
इससे पहले कि भारतीय सेना को इस धोखे की भनक लगती पाकिस्तान की “नार्थ लाइट इन्फेंट्री” ने भारत में 130 स्क्वायर किलोमीटर अन्दर घुस कर 132 चौकियों पर कब्ज़ा कर लिया था। भारतीय सेना ने इस हमले का मुँह तोड़ जवाब देने और अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए “ऑपरेशन विजय” का आगाज़ किया।
शेरशाह
चारों ओर चोटियों से घिरे, समुद्र तल से 17,000 फीट ऊपर लड़ा गया ये अपनी तरह का पहला युद्ध था जो आधुनिक काल में इस तरह के क्षेत्र में लड़ा गया था। एक ऐसा युद्ध जिसने ये साफ़ कर दिया की भारत पहले हमला तो नहीं करता लेकिन जीत का आखिरी वार ज़रूर करता है। जब युद्ध शुरू हुआ तब विक्रम बेलगाम से कमांडो प्रशिक्षण करके घर लौटे थे। मौका था होली का, उनके होने से घर में एक अलग ही रौनक थी। विक्रम जब भी पालमपुर में होते तब अपने दोस्तों के साथ न्यूगल कैफ़े में कॉफ़ी पीने ज़रूर जाते थे। युद्ध की खबर के कारण उनके दोस्तों ने उन्हें सावधान रहने कि चेतावनी देते हुए कहा कि हो सकता है कि उन्हें भी बुला लिया जाये। उन्होंने जवाब में कहा, “चिंता मत करो, मैं या तो जीत कर तिरंगा फहरा कर आऊंगा या उस तिरेंगे में लिपट कर आऊंगा, लेकिन आऊंगा ज़रूर।”
जल्द ही, उनकी टुकड़ी को कारगिल जाने का आदेश मिल गया। 19 जून 1999 को उन्हें पॉइंट 5140 को दुश्मन के कब्ज़े से छुड़ाने का निर्देश मिला। उन्हें अपना शौर्य दिखाने का मौका मिल चुका था। दुश्मन के पास ऊंचाई का फ़ायदा था, वे चोटी के ऊपर से हम पर नज़र रखे हुए थे। जब बत्रा व उनके साथी चोटी के ऊपर पहुँचे तब उनके रेडियो का पाकिस्तानी कमांडर से संपर्क हुआ, कमांडर ने बत्रा का कोडनेम “शेरशाह” भी लिया, यह नाम उन्हें अपने कमांडिंग ऑफिसर से मिला था, जिन्होंने बत्रा के अन्दर छुपे शूरवीर सैनिक और दृड योद्धा को पहचान लिया था। लेकिन बत्रा पर पकिस्तानी कमांडर की धमकियों का कोई असर नहीं हुआ, यहाँ तक की उन्होंने उस कमांडर को एक घंटे में चौकी वापस अपने कब्ज़े में लेने की चुनौती भी दे डाली और फिर उन्होंने अपनी चुनौती को पूरा भी किया। बत्रा ने अपनी टुकड़ी के साथ दुश्मन के 8 सैनिकों को मौत के घाट उतारा और एक भारी मशीन गन पर कब्ज़ा कर लिया। उनकी यह तरकीब कारगर साबित हुई और उन्होंने बड़ी आसानी से पॉइंट 5140 दुश्मन के साथ से छीन लिया। हमारा बहादुर किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं था उन्होंने बड़े फक्र से रेडियो पर अपने कमांडिंग ऑफिसर को अपनी जीत का संकेत “ये दिल मांगे मोर” दिया।
यह तो जीत की ओर बस एक कदम था, अभी तो और आगे जाना था, दुश्मन के हाथ से और चौकियाँ खीचनी थी। अगला अध्याय था पॉइंट 4750। यह जंग का अगला पड़ाव था, जो की पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक था। लेकिन जीत हमेशा बहादुर की ही होती है और इस बार भी ऐसा ही हुआ, जीत हमारे बहादुरों की हुई। पॉइंट 4750 पर फिर से हिन्दुस्तान का राज था, शेरशाह का उत्साह देखते ही बन रहा था, उन्होंने बड़े ही जोश के साथ वहाँ तिरंगा फहराया। यह तो तय था की अब वे न रुकने वाले थे और न ही झुकने वाले, वे एक-एक दुश्मन को घर भेजने का मन बना चुके थे।
देशभक्ति की भावना और जीत के जुनुन में वे अपनी तीसरी और सबसे मुश्किल जंग में जाने के लिए तैयार हो गए। उन्हें तेज़ बुखार था लेकिन वे देश की सेवा करने के एक भी मौके को गवाना नहीं चाहते थे। उन्होंने अपने कमांडिंग ऑफिसर से पॉइंट 4875 को दुश्मन के चंगुल से छुड़ाने जा रही टुकड़ी के साथ जाने की गुज़ारिश की। यह अब तक का सबसे खतरनाक मिशन था। दुश्मन 16,000 फीट ऊपर बेठा था, 80 डिग्री खड़ी इस घाटी का ढ़ाल बर्फ की चादर से ढ़का हुआ था, पूरी घाटी कोहरे से नहाई हुई थी। किसी आम इंसान के लिए इस पर दिन के उजाले में चढ़ना भी न के बराबर था लेकिन हमारे वीरों ने न सिर्फ चढ़ाई की, बल्कि दुश्मनों से लडे भी और उन्हें हराया भी, वो भी रात के अँधेरे में।
7 जुलाई की उस काली रात में, आमतौर पर शांत रहने वाली घाटियों में एक असहनीय शोर था। जंग के मैदान में खून की नदियाँ बह रही थी, कोहरा बढ़ता ही जा रहा था और अब ऊपर बैठे दुश्मन को देख पाना बहुत मुश्किल हो गया था। पाकिस्तानी सैनिक हमारे जवानों को मार रहे थे लेकिन हमारे जवान जवाबी हमला करने से नहीं चूक रहे थे, वे मरने और मारने को तैयार थे। युद्ध रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था और उस रात ये खूबसूरत घाटी इस दमघोटू माहौल में सांस भी नहीं ले पा रही थी। गोलियों और बारूदों के बीच बत्रा और उनके साथी दुश्मन के बंकर तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। जल्द ही दुश्मन तक ये खबर फ़ैल गयी की शेरशाह वहाँ आ रहा है। यह खबर सुन के दुश्मन इतने घबरा गये की उन्होंने बौखलाहट में हिन्दुस्तानी सैनिकों पर अंधाधुन गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया। उनकी बन्दूकें अब आग उगल रही थी।
कोहरा इतना बढ़ गया था की मानो चाकू से काटने पर ही उस तरफ का नज़ारा दिखाई देगा, दुश्मन को कुछ परछाइयाँ उनकी ओर आती दिखाई देने लगी, दुश्मन समझ चुके थे कि शेरशाह उन पर हमला करने पहुँच गए हैं। उन्होंने जल्दी से हमला करने की कोशिश की लेकिन शेरशाह ने बाज़ी मारते हुए पहले हमला कर दिया, गोलियाँ दुश्मनों को चीरते हुए निकल रही थी। शेरशाह का सिर्फ नाम ही दुश्मन के दिल में डर पैदा कर देता था और उनका वहाँ मौजूद होना दुश्मन के लिए किसी डरावने सपने से कम नहीं था। बत्रा और उनके साथी दुश्मन के साथ दो-दो हाथ कर रहे थे, गोलियाँ रुक गयी थी। शेरशाह अपने चारों ओर गिरे खून को देख सकते थे, उन्हें हवा में पसीने और डर की गंध आ रही थी, उन्हें अपने पैर के नीचे से सरकती बर्फ का अहसास हो रहा था लेकिन उन्हें इन सब से कोई मतलब नहीं था, मतलब था तो सिर्फ जीत से। और आखिरकार दुश्मन को दुम दबा कर भागना ही पड़ा, वे जीत गए।
युद्ध लगभग ख़त्म हो चूका था और तभी गोलीबारी के बीच बत्रा के जूनियर लेफ्त्तिनेंट नवीन को गोली लग गयी और वो वापस बंकर पहुँचने की हालत में नहीं थे।
कैप्टेन बत्रा उन्हें बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े, लेफ्टिनेंट नवीन ने उन्हें अपनी जान बचाने की हिदायत दी, लेकिन हमारे कैप्टेन बत्रा के पास मजबूत शरीर के साथ ही कोमल दिल भी था उन्होंने जवाब में कहा, “तू बाल बच्चे वाला है, पीछे हट जा” और तभी एक गोली उस जाँबाज़ के सीने पर लगी और वो हमें छोड़ कर चले गए। शेरशाह अब नहीं रहे लेकिन उन्होंने अपना आखिरी मिशन पूरा किया, उन्होंने दुश्मन की आँखों में अपना खौफ देखा।
उस दिन कैप्टेन बत्रा शहीद हो गए, लेकिन शेरशाह आज भी हमारे दिलों में जिन्दा हैं। वो शौर्य जिसने उन्हें निडर बनाया, वो शौर्य जिसने उन्हें अमर बनाया, वो शौर्य जिसने उन्हें कारगिल का हीरो बनाया, वो शौर्य जिसने उनके सिर्फ नाम से दुश्मन के मन में डर पैदा किया, हमें वही शौर्य चाहिए कैप्टेन बत्रा जैसा बनने के लिए। एक ऐसा सैनिक जिसका प्रदर्शन इतना शानदार रहा की उन्हें युद्ध के बीच ही पदोन्नत किया गया। उनके शौर्य की चर्चा तब भी थी और अब भी है।
हम उस शूरवीर को सलाम करते हैं जिन्हें परमवीर चक्र तो शहादत के बाद मिला लेकिन वीरता उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी दिखाई। हम सलाम करते हैं कैप्टेन विक्रम बत्रा को जिन्होंने खुद से पहले देश और अपने साथियों के बारे में सोचा। हम सलाम करते हैं शेरशाह को जिन्होंने हमारे देश की इज्ज़त और गरिमा को बचाया। हम सलाम करते हैं उस हीरो को जिसने हमें सिखाया की देश की सेवा और देश की रक्षा से बढ़कर और कुछ नहीं होता, खुद भी नहीं।