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कैप्टन, महेंद्र नाथ मुल्ला, MVC

9 दिसंबर, 1971 की वो ठंडी रात आईएनएस किरपान के नाविक  शिव भगवान के लिए किसी सपने से कम नहीं थी, वे उस रात अपने जहाज़ की निगरानी कर रहे थेI समुद्र का पानी किसी चमकदार काँच की तरह साफ था, ऐसा लग रहा था मानो निराशा की हर भावना को पानी अपने अन्दर समेटता जा रहा होI लहरों के बीच जंग छिड़ी हुई थी, वे उत्सुकता से एक-दूसरे को पछाड़ कर आईएनएस खुकरी को छूने की जद्दोजहद मे लगीं थीं, ऐसा लग रहा था जैसे वे कोई राज़ बताने की कोशिश कर रही हैं। लहरों ने शिव भगवान को अपने खयालों की दुनिया से  निकालकर आईएनएस खुकरी की उपस्थिति का एहसास करायाI जहाज की रोशनी बंद  थी। सबकुछ सामान्य लग रहा था लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि आईएनएस खुकरी पर किसी और की भी नज़र थी। महासागर और भारतीय नौसेना के बहादुर युद्ध जहाजों ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया था; वो नौसेना जो अनंत समुद्र का एक अटूट हिस्सा हैं, वो नौसेना जो भारत के सर का ताज है, वो नौसेना जो हमारा गौरव हैI

तब ही, उन्होंने देखा कि आईएनएस खुकरी का बो पानी से बाहर आ गया और समुद्र का पानी जहाज़ में जा रहा था। आईएनएस खुकरी डूब रहा थाI जो नज़ारा किसी खूबसूरत ख्वाब की तरह लग रहा था, अब वह दिल देहला देने वाले मंज़र बन चुका था, भावनाओं का भँवर लहरों के भँवर से बड़ा था। सभी तरफ घबराहट और भगदड़ का माहौल था; जहाज़ पर बहुत सारे युवा अधिकारी और नाविक थे, छोटी नौकाओ को पानी में उतारा जा चूका था, पानी मे जिंदा रहने के लिए जैकेट वितरित किए गए।

अचानक एक नाविक ने अपने कप्तान को डेक पर खड़े देखा, नाविक ने उन्हें आखिरी जैकेट पेश किया, कप्तान ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और नाविक को अपनी जान बचाने के लिए कहा। इस घबराहट के बीच कैप्टन अभी भी शांत थे, वे अभी भी डेक पर खड़े थे जैसे कि वे समुद्र की हर एक सांस को महसूस कर रहे थे- ताजा और ठंडी सांस। और फिर, आईएनएस खुकरी कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला की सिगरेट के अंतिम कश के साथ डूब गया।
सेवा और बलिदान

15 मई 1926 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में श्री तेज नारायण मुल्ला और कमला मुल्ला के घर उनके दूसरे पुत्र महेंद्र का जन्म हुआ। वकीलों के परिवार में जन्म लेने के कारण सभी को लगता था की महेंद्र भी एक दिन अपने बड़े भाई और चाचा की तरह वकील या अपने पिता की तरह एक न्यायाधीश ही बनेंगे। लेकिन किस्मत की योजना कुछ और ही थींI जैसे जैसे महेंद्र बड़े होने लगे सशस्त्र बलों के प्रति उनकी रुचि भी बढ़ती गयी। 20 साल की उम्र में, उन्होंने बेहतरीन अंको के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की और 1 मई, 1948 को भारतीय नौसेना में भर्ती हुए। वे अपने सपने के एक कदम करीब आ गए थे, देश सेवा का सपना, देश के लिए जीने का सपना और देश के लिए कुर्बान हो जाने का सपना। वे मार्शल कार्यवाही में रक्षा वकील की अपनी विशेषज्ञता के लिए बहुत जाने जाते थे। उनके वरिष्ठ अक्सर उनकी सराहना किया करते थे।

 

कमीशन मिलने के बाद कैप्टन मुल्ला को आगे के प्रशिक्षण के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहाँ के  कठोर प्रशिक्षण ने उन्हें एक बेहतर व्यक्ति और एक बेहतरीन सैनिक बनने के लिए प्रेरित किया। उन चार वर्षों के प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने अपने देश को बहुत याद किया, लेकिन वापस लौटने की आशा ने उन्हें हमेशा हिम्मत दी। जब वे वापस आए, तो उन्होंने एक खदान के कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य किया। उन्हें तीन साल के लिए आईएनएस कृष्णा में नियुक्त किया गयाI वे अपने शांत और धीर व्यक्तिव की वजह से अपने अधीनस्थों के बीच बहुत लोकप्रिय थेI

वे समुद्र की गहराई से आकाश की ऊंचाई को छू रहे थे। वे अपनी मेहनत और देश सेवा के जूनून की बदोलत इतना आगे बढ़ गए थे की पीछे मुड़ना असंभव सा लगता था; उन्होंने नौसेना मुख्यालय में नौसेना नियुक्तियों के प्रभारी अधिकारी, तीन साल के लिए लंदन में भारतीय उच्चायुक्त के उप-नौसेना सलाहकार और बॉम्बे में नौसेना तट स्थापना आईएनएस अंगरे के कार्यकारी अधिकारी के रूप में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। उन्होंने नेवल प्लांस निदेशालय में नौसेना मुख्यालय में कार्यकाल के अलावा आईएनएस राणा के कमांडिंग ऑफिसर के रूप में भी कार्य किया। 16 सितंबर 1958 को, उन्हें लेफ्टिनेंट कमांडर और 30 जून 1964 को कमांडर के पद पर पदोन्नत किया गया।

 

काम के साथ-साथ उनका निजी जीवन भी किसी सुन्दर सपने की तरह था। उनके छोटे परिवार में उनकी पत्नी सुधा मुल्ला और दो बेटियाँ अमिता और अंजलि शामिल थीं। अपने परिवार और राष्ट्र के अलावा उनका दिल एक और चीज़ के लिए धड़कता था- उर्दू शायरी।

चाहे अहमद फ़राज़ हों या मिर तकी ‘मीर’, कप्तान मुल्ला को उर्दू कविता और साहित्य पढ़ना पसंद थाI उनका जीवन परिपूर्ण था लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था, उन्हें अपने राष्ट्र के सम्मान के लिए लड़ना था।  उन्हें दुश्मन को एक भारतीय सैनिक का साहस दिखाना था। उन्हें महावीर बनने के लिए शौर्य का मार्ग प्रशस्त करना था। और उनके सपने को हकीकत में बदलने के लिए; उन्हें फरवरी 1971 में आईएनएस खुकरी का कमांडिंग ऑफिसर बनने का अवसर मिला।

 

गलियारा
स्वतंत्रता के संघर्ष ने कुछ कभी न भरने वाले घाव दिए और कुछ कभी न भूली जाने वाली यादें। एक स्वतंत्र भारत के विचार ने तीन राष्ट्रों को जन्म दिया; भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश। बांग्लादेश; बंगाल की खाड़ी के आँचल मे दुबका एक छोटा सा देश । आज जिस बांग्लादेश को हम जानते हैं, वह आजादी से पहले बंगाल का हिस्सा था और आजादी के ठीक बाद पूर्वी पाकिस्तान था। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में भाषा, भोजन, भौगोलिक परिस्थितियों और आर्थिक स्थिति के आधार पर अनगिनत विविधताएँ थीं; उस एक राष्ट्र के दो भाग एक दूसरे से लगभग 2,000 किलोमीटर दूर थे और भारत वो दूरी मिटाने वाला एकमात्र गलियारा था। इस देश की आजादी के संघर्ष की कहानी अन्य दोनों देशों की तुलना में अधिक लंबी और दर्द भरी है।

पश्चिमी पाकिस्तान ने हमेशा पूर्वी पाकिस्तान की जरूरतों, आवश्यकताओं, आवाज और अस्तित्व की अवहेलना की। और यही अवहेलना आखिरकार ‘बांग्लादेश मुक्ति युद्ध’ के रूप में सामने आई। इस युद्ध को समाप्त करने के लिए पाकिस्तान ने कई निर्दोष बांग्लादेशियों को मौत के घाट उतार दिया।पाकिस्तान के इस रवैये ने भारत को उकसाया और भारत चुपचाप युद्ध के लिए खुद को तैयार करने लगाI

 

3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने युद्ध की शुरुआत की। 16 दिसंबर 1971 को भारत की जीत के साथ युद्ध समाप्त हो गया। संघर्ष के इन 13 दिनों ने पाकिस्तान को दुनिया में अपना वास्तविक स्थान दिखाया और एक स्वतंत्र बांग्लादेश को जन्म दिया। युद्ध भारत के पूर्वी मोर्चे पर शुरू हुआ लेकिन पाकिस्तान ने; भारतीय सेनाओं को विचलित करने के लिए पश्चिमी मोर्चे पर भी युद्ध शुरू कर दिया। लेकिन हमारे बहादुर सैनिक किसी भी परिस्तिथि का सामना करने के लिए तैयार थे। भारतीय सशस्त्र बलों के तीनों अंगो;  सेना, नौसेना और वायु सेना ने युद्ध में भाग लिया और केवल एक ही चीज़ को सुनिश्चित किया; विजय। भारतीय सेना के कुछ सैनिक पच्छिम बंगाल और बांग्लादेश की हरी भरी भूमि पर लड़ रहे थे, तो कुछ जैसलमेर की बंजर भूमि परI नौसेना ने बंगाल की खाड़ी से होते हुए हिन्द महासागर और अरब सागर तक पूरे प्रायद्वीप की सुरक्षा का ज़िम्मा उठाया। और भारतीय वायु सेना ने हमारे सुंदर और विविध राष्ट्र के ऊपर नीले आकाश का भार संभाला।
ऑपरेशन ट्राइडेंट
4 दिसंबर को भारतीय नौसेना दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन के पीछे की कहानी 1971 के युद्ध से जुड़ी हुई है। कराची का बंदरगाह पाकिस्तान की नौसेना का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह था क्योंकि लगभग पुरे पाकिस्तान का बेड़ा कराची बंदरगाह में स्थित था। सिर्फ यही नहीं कराची बंदरगाह पाकिस्तान के समुद्री व्यापार का केंद्र भी था।

4 दिसंबर 1971 को, भारत ने ‘ऑपरेशन ट्राइडेंट’ छेड़ा। भारत के बड़े युद्धपोतों ने छोटे जहाजों को ले जाकर भारतीय समुद्री सीमा पर छोड़ दिया। वहाँ से छोटे जहाजों ने कार्यभार संभाला और कराची बंदरगाह को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। इस अप्रत्याशित हमले ने पाकिस्तान की अर्थव्यस्था को हिला कर रख दिया थाI इस हमले के बाद सात दिन तक कराची बंदरगाह जलता रहा ‘ऑपरेशन ट्रिडेंट’ की सफलता ने भारत की जीत को और पक्का कर दिया। यह ऑपरेशन समुद्र की रखवाली करने वाली भारतीय नौसेना के आकाश में चंद्रमा के रूप में चमकता हैI

 

शं नो वरुणः

युद्ध अपने चरम पर था, समुद्र का गहरा नीला पानी चुपचाप विशाल युद्धपोतों और बहादुर सैनिकों को सलामी दे रहा था। लहरें थोड़ी ऊंची थीं मानो वे भारतीय नौसेना के लिए अपना उत्साह और समर्थन दिखा रही थी। समुद्र मे कोई मछली नहीं दिख रही थी शायद इसलिए क्योंकी उन्हें खून की गंध तो पसंद थी लेकिन युद्ध की महक नहीं।

आईएनएस खुकरी विशाल युद्ध पोतों में से एक था जो दुश्मन के हर जहाज़ को गहरे नीले समुद्र में डुबो रहा था। 3 दिसंबर 1971 को भारतीय नौसेना के रेडियो डिटेंशन उपकरण ने एक पनडुब्बी के घुसपैठ की पहचान की, जो दीव बंदरगाह से 56 किलोमीटर दूर थी, स्थिति चिंताजनक थी। पनडुब्बी को नष्ट करने के लिए पश्चिमी बेड़े के 14 वें फ्रिगेट स्क्वाड्रन को भेजा गया। बेड़े में पांच जहाज खुखरी, किरपान, कलावती, कृष्णा और कुथर शामिल थे। लेकिन दुर्भाग्य से उस समय, बॉम्बे में कुथर की मरम्मत की जा रही थी। भारतीय नौसेना के पास उस समय पर्याप्त संख्या में पनडुब्बी रोधी विमान नहीं थे।

 

आईएनएस खुकरी और आईएनएस किरपान उस समय उपलब्ध थे और उन्हें दीव बंदरगाह  की ओर रवाना किया गया। दुश्मन की पनडुब्बी हंगूर को 9 दिसंबर की सुबह दो सोनार संपर्क मिले। हंगूर को पता चल चूका था की इस विशाल समुद्र में वह अकेला नहीं है बल्कि भारत के दो जहाज़ भी वहाँ मौजूद हैं, लेकिन थोड़ी ही देर में उसने संपर्क खो दिया। दोनों भारतीय युद्धपोत दुश्मन को निशाना बनाने की कोशिश कर रहे थे। आईएनएस खुकरी के कमांडिंग ऑफिसर कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला ने हर शाम आकाशवाणी पर समाचार सुनना अनिवार्य कर रखा था। उनके अनुसार, वे जमीन से दूर हैं, लेकिन दुनिया की खबर रखना बहुत ज़रूरी है। समुद्र चुप था, रात में पानी की लहेरें चमक रही थी, कैप्टेन मुल्ला जहाज़ की निगरानी रख रहे थे और उन्होंने सभी नाविकों और अधिकारियों को समाचार सुनने की आज्ञा दी हुई थी, वे अपने चारों ओर हो रही हर छोटी गतिविधि पर नज़र बनाये हुए थे। तभी एक टॉरपीडो खुकरी के निचले हिस्से पर जा लगा, यह हमला इतना तीव्र था कि इसने पूरे जहाज़ को हिला दिया और कप्तान को टॉरपीडो के कारण हुए कंपन की वजह से सिर में चोट लगी। आईएनएस किरपान ने जब यह देखा तो वह अपने साथी जहाज को बचाने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन हंगूर ने उस पर भी हमला कर दिया, सौभाग्य से आईएनएस किरपान इस हमले से बच गया। लेकिन इससे किरपान को यह सुनिश्चित हो गया कि दुश्मन के रडार पर वह भी है। किरपान को जगह छोड़ने के आदेश मिले। और भारी मन से किरपान को खुकरी को अकेला छोड़ना पड़ा।

 

दूसरी ओर कैप्टन मुल्ला ने बिना वक़्त बर्बाद नहीं किये सभी को सचेत किया कि यह दुश्मन की पनडुब्बी द्वारा किया गया हमला था। इससे पहले कि वे प्रतिक्रिया दे पाते या जवाबी हमला कर पाते पिएनएस हंगूर ने एक और हमला कर दिया, जिससे आईएनएस खुकरी को  विनाशकारी क्षति पहुची। कैप्टन मुल्ला ने मिनटों मे स्थिति का मूल्यांकन किया और जहाज़  को छोड़ने के आदेश जारी किए। दो बड़े विस्फोटों के कारण जहाज़ के अन्दर तक की बिजली चली गयी थी। धीरे धीरे जहाज ने झुकना शुरू कर दिया। हर कोई जहाज छोड़ने की कोशिश कर रहा था, हर कोई इस अंधेरी और घातक रात मे जिंदा रहने की कोशिश कर रहा था। लेकिन कैप्टन मुल्ला बिल्कुल शांत थेI वे बुरी से बुरी स्थिति के लिए तैयार थे। उन्होंने जहाज़ से निकलने में कई लोगों की मदद की।

 

उन्होंने छोटी नावों और राफ्टों को समुद्र में फेंकने की आज्ञा दी। वे जानते थे कि हर कोई घबरा रहा है, वे चाहते थे कि उनके लोग जीवित रहें और इसीलिए उन्होंने अपने नाविकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उन्हें छोटी नावों तक ले गए। कैप्टन मुल्ला जानते थे कि समुद्र की सतह को चूमने का समय आ गया है। वे डेक पर वापस चले गये, जब एक नाविक ने यह देखा तो उसने कैप्टेन मुल्ला के सामने अपना जैकेट पेश किया, कप्तान ने मुस्कुराते हुए कहाँ, “मेरी चिंता मत करो, अपने आप को बचाओ” और उसे छोटी नाव पर चढ़ने के लिए कहाँ।

कैप्टन मुल्ला जानते थे कि उनके साथी जहाज़ पर फंसे हुए थे, वे जानते थे कि वे उन सभी को नहीं बचा सकते; उन्होंने उनके साथ डूबने का फैसला किया।

आईएनएस खुकरी 176 बहादुर नाविकों और 18 साहसी अधिकारियों और जहाज़ के कप्तान के साथ मिनटों मे अरब सागर की गोद मे समां गया। बचे हुए सैनिको ने जहाज़ को डूबते देखा, उन्होंने नाविकों को मदद के लिए चिल्लाते देखा और उन्होंने कैप्टेन के चेहरे पर शांति देखी, उन्होंने उन्हें अपनी सिगरेट के आखिरी कश के साथ डूबते हुए देखा, जैसे कि समुद्र भी उनके आखरी कश का इंतज़ार कर रहा हो।

 

कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला को उनके उत्कृष्ट साहस, नेतृत्व और सर्वोच्च बलिदान के लिए भारतीय नौसेना के पहले और राष्ट्र के दूसरे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार “महा वीर चक्र” से सम्मानित किया गयाI

कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला ने अपनी सुरक्षा के बारे में सोचे बिना अपने सैनिकों को बचाकर शौर्य के सही अर्थ को परिभाषित कियाI अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ने से इनकार करके उन्होंने अपने शौर्य को परिभाषित किया, अपनी जान बचाने का मौका होते हुए भी अपने साथियों का हाथ थामे रख कर उन्होंने अपने शौर्य को परिभाषित कियाI

उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु को गले सबसे पहले वे लगायेंगे। कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला की शौर्यगाथा न केवल आईएनएस खुखरी के बचे हुए वीरो बल्कि पूरी नौसेना और सशस्त्र बलों का मनोबल बढ़ाती है। उनकी शौर्यगाथा हर भारतीय को अपने देश और अपने साथीयों के लिए अपने जीवन का बलिदान देने के लिए प्रेरित करती है। हम कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला को सलाम करते हैं क्योंकि उन्होंने हमे वही सिखाया जिसका साथ उन्होंने मरते दम तक नहीं छोड़ा- शौर्य।