26 जनवरी, एक ऐसा दिन जब हर भारतीय का दिल देशभक्ति और मातृभूमि के प्रति अपार प्रेम से भर जाता है। वो दिन जिसे गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। वो दिन, जब हमने एक पूर्ण विकसित राष्ट्र के रूप में अपना स्वतंत्र मार्ग प्रशस्त किया।
हर साल यह दिन पूरे देश में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है, लेकिन दिल्ली में यह उत्साह दोगुना हो जाता है, जहाँ राजपथ से लेकर राष्ट्रपति भवन के पास रायसीना हिल्स तक एक भव्य गणतंत्र दिवस परेड आयोजित की जाती है। इस परेड का माहौल अकल्पनीय है। देशभक्ति के गीत बजाए जाते हैं; वर्दीधारी रणबाँकुरे हमेशा की तरह हमें गर्वित करते हुए दिखाई देते हैं। भारत के प्रधान मंत्री इंडिया गेट के अमर जवान ज्योति पर माल्यार्पण करते हैं, जिसमें उन सभी सैनिकों को श्रद्धांजलि दी जाती है जिन्होंने देश के लिए अपना बलिदान दिया। और फिर, राष्ट्रपति तिरंगा फहराते हैं और राष्ट्रगान बजाया जाता है।
परेड की शुरुआत राष्ट्रपति के समक्ष खुली जीपों में वीरता पुरस्कारों के विजेताओं के काफिले से होती है। पिछले 52 वर्षों से हर साल एक परिचित चेहरा राष्ट्रपति को सलामी देता नज़र आता है। एक लंबा और दुबला व्यक्ति, अपने पुराने चेहरे पर एक युवा चमक लिए, जिनकी शाही मूंछें और लाल पगड़ी उनके शौर्य की गाथा सुनाती हैं। अपने 52 साल के गणतंत्र परेड के साथ राष्ट्र को गौरवान्वित करने वाले वे राष्ट्रगौरव कर्नल जसराम सिंह हैं, जिन्हें 1968 में उनके अद्भुत पराक्रम के लिए “अशोक चक्र” से सम्मानित किया गया थाI
इस बारे में बात करने से पहले कि उन्हें यह सम्मान क्यों प्राप्त हुआ, हमारे लिए यह जानना बहुत ज़रूरी है की वे इस देश के गौरव, देशवासियों के लिए प्रेरणा और एक नायक कैसे बने, पुरस्कार प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा, “मेरा मानना है कि यदि कलम और तलवार एक साथ मिल जाये तो कोई भी हमारे देश को विश्व शिक्षक बनने से नहीं रोक सकता” कलम से उनका मतलब मीडिया और सरकार था, और तलवार से उनका मतलब रक्षा सेवाओं से था। ये शब्द हर सफल राष्ट्र का सार है। ये शब्द किसी अर्थशास्त्री या राजनेता द्वारा नहीं कहे गए हैं; ये शब्द एक साधारण भारतीय, एक किसान के बेटे और एक बहादुर सैनिक के हैं।
सक्षम कप्तान
‘जस’ का अर्थ है समर्थ। उन्होंने कठिन समय में अपनी क्षमताओं को साबित किया। कैप्टन जसराम सिंह का जन्म 1 मार्च 1935 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के भभोकरा गाँव में हुआ था। उनके पिता श्री बदन सिंह एक किसान थे। उनके गाँव की स्थितियाँ उस समय अन्य भारतीय गाँवों से भिन्न नहीं थीं। उनके गाँव में तब कोई स्कूल नहीं था।
और यहाँ से हमारे सक्षम कप्तान ने ज़मीन से आकाश तक की ऊंचाइयों को छूने का संघर्ष शुरू किया। चूँकि उनके गाँव में स्कूल नहीं था, इसलिए उनकी प्राथमिक शिक्षा दूसरे गाँव में हुई जो कि 4 किलोमीटर दूर था, जिसके बाद उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा के लिए खुरजा में NREC (नथी मलराम सहाई मल एडवर्ड कोरोनेशन स्कूल) मे दाखिला लिया। उनकी बहादुरी की बहुत अपरंपरागत शुरुआत थी लेकिन वे जीवन भर अपना रास्ता खुद बनाते चले।
सिगनलमैन से देश की ढ़ाल तक
1953 में वे सिग्नल मैन के रूप में सेना के सिग्नल कोर में शामिल हो गए। वे एक ईमानदार और मेहनती नायक थे, जो सिग्नल मैन के रूप में 10 साल की सेवा के बाद एक हवलदार के रूप में शैक्षिक कोर में चले गए। 1962 में जब आपात काल घोषित किया गया, तो उन्हें आपातकालीन आयोग के द्वारा सेना में अधिकारी के लिए चुना गया था। कैप्टन जसराम ने ओटीएस मद्रास में अपना प्रशिक्षण पूरा किया और “राजपूत रेजिमेंट सेंटर, फतेहगढ़” में अपनी पहली पोस्टिंग प्राप्त की। राजपूत रेजिमेंट ने उनके वीरतापूर्ण स्वभाव को मूल रूप से प्रेरित किया और उन्हें भारत के भविष्य के लिए प्रेरित करने के लिए प्रशिक्षित किया।
1965 में उनकी पल्टन सिक्किम चली गई। एक गश्ती दल वहाँ खो गया था इसलिए उसकी खोज करने के लिए एक दूसरे दल को भेजा गया, उन्हें इस दल के गश्ती कमांडर के रूप में नियुक्त किया गया था। वे बहुत ही खतरनाक छोर “भारत-चीन सीमा“ के पास थे। 1962 के युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध कभी नहीं रहे। उस समय सिक्किम सफेद सागर की तरह दिखता था। बर्फ की चादर 25 से 30 फीट मोटी थी, दूर-दूर तक कोई और रंग नहीं दिखता था। चाहे दिन हो या रात वहाँ चारों तरफ बर्फ और बर्फ थी। दिशाओं को चिह्नित करने या वापसी का निशान लगाने के लिए कोई भी वनस्पति नहीं थी। बिना किसी गर्म कपड़े के, केवल सेवा के जुनून के साथ, उन्होंने खोई हुई टुकड़ी को ढूँढ लिया और उन्हें सुरक्षित भारत वापस लाये। इस काबिले तारीफ काम के बाद, वे बहुत बीमार हो गए। इसलिए उन्हें राजपूत रेजिमेंटल सेन्टर, फतेहगढ़ में फिर से नियुक्त कर दिया गया।
1967 में वे असम राइफल्स, शिलांग में तैनात थे। वे “सिक्स असम राइफल्स” मुख्यालय गए और उन्होंने वहाँ जो देखा वह बहुत निराशाजनक था। सैनिकों को उस समय झेली जा रही कठिन परिस्थितियों ने दुखी और हताश कर दिया था। उस दौर की बात करते हुए वे कहते हैं, “मैंने उनसे कहा कि मैं आपके लिए नया हूँ और आप मेरे लिए नए हैं। लेकिन तुम्हारा और मेरा धर्म एक ही है। राष्ट्र के लिए हमारी शपथ के प्रति सच्चा होना।” उन्होंने सैनिकों से किसी भी कीमत पर उनकी समस्याओं को हल करने का वादा किया और साथ ही उनकी समस्याओं और कम मनोबल के कारणों के बारे में पूछा। इससे सैनिकों में आशा की एक किरण जागी और उन्होंने अपनी समस्याओं को उनके सामने रखना शुरू किया। इस घटना ने उनके और उनकी टुकड़ी के बीच एक अटूट बंधन स्थापित किया।
मिज़ो नेशनल फ़्रंट की स्थापना सन् 1966 मे हुई थी, जो उस समय एक आतंकवादी समूह नहीं था लेकिन उनका उद्देश मिजोरम को स्वतंत्र भारत से अलग करना था। 28 फरवरी 1966 को उन्होंने “जेरिको” नामक एक ऑपरेशन शुरू किया। इस ऑपरेशन के तहत उन्होंने मिजोरम, असम राइफल्स और यहाँ तक कि सरकारी खजाने पर भी हमला किया। हमले बहुत गंभीर थे और यह समूह इतना बेकाबू था कि 5 मार्च 1966 को हमारी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस देश विरोधी व्यवहार को रोकने के लिए भारत के अपने ही क्षेत्र में पहला और आखिरी हवाई हमला किया।
कप्पा
मिज़ो राष्ट्रीय फ्रंट को भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र से शक्ति और समर्थन मिल रहा था । भारतीय सैनिकों के लिए उन्हें रोकना मुश्किल होता जा रहा था। वे बहुत चालाकी से हमला करते थे, उन्होंने हमारे सैनिकों को मारने के लिए घात जाल का इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें पता नहीं था कि हमारे रखवाले कैप्टेन जसराम सिंह उनसे ज्यादा चालाक थे। कैप्टन जसराम ने अपनी टुकड़ी के साथ एक रास्ता निकाला और उन्होंने मिजो राष्ट्रीय फ्रंट के आतंकवादियों पर घात लगाकर हमला करना शुरू कर दिया और उनके खेल मे उन्हें ही मात दी। कैप्टन जसराम हमलावरों को ढूँढ़ने के लिए मिजोरम के जंगलों में घूमा करते थे, मिजो फ्रंटियर्स को गुमराह करने के लिए उन्होंने अपने जूतों की छाप छोडनी शुरू कर दी और यह तरकीब काम करने लगी। दुश्मन ने सोचा कि यह उनके पैरों के निशान हैं और उनका पीछा किया और हमारे बहादुर सैनिकों ने उन्हें आसानी से मार डाला।
दृढ़ता और साहस
लेफ्टिनेंट जनरल सैम मानेकशॉ ने कैप्टन जसराम की बहादुरी को देखते हुए, उनकी खूब सराहना की। कर्नल जसराम अब सोलह बटालियन का नेतृत्व कर रहे थे। सुबह के 4.30 बज रहे थे जब उन्हें मिज़ो पहाड़ियों में उग्रवादी गतिविधियों की खबर मिली और बिना वक़्त गवाए कैप्टन जसराम, जो अपनी देशभक्ति के लिए जाने जाते हैं, तुरंत जंगल की ओर चल दिए। वहाँ हथियारों से लैस 50 आतंकवादी थे । कैप्टन जसराम दो टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे। रात काफी ठंडी थी, उग्रवादियों ने जंगल में शरण ली हुई थी, उन्होंने खुद को गर्म रखने के लिए आग जलाई हुई थी। उन्हें लगा कि वे सुरक्षित हैं लेकिन कप्पा धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ रहे थे। कैप्टन जसराम ने अपनी एक टुकड़ी को दूसरी तरफ से हमला करने के लिए भेजा और दूसरी को सामने से। जब वे हमला करने वाले थे तभी उग्रवादियों ने गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया। हमारे बहादुर कप्तान खुद हमले का नेतृत्व कर रहे थे। दुश्मन आसानी से आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं था। आतंकवादी हमारे सैनिकों पर लगातार गोलियाँ बरसा रहे थे, कप्तान जसराम ने उनकी गोलियाँ का जवाब अपनी दृढ़ता और साहस से दियाI पूरी मिजो पहाड़ी इस संघर्ष की गवाही दे रही थी, उस दिन हवाओं की सरसराहट नहीं बल्कि गोलियों का शोर था। जिस ज़मीन पर मोरों के पैरों के निशान होते थे वहाँ आज खून का सैलाब था। हमेशा खामोश रहने वाली पहाड़ी डर से चीख रही थी। यह संघर्ष कुछ देर चला और जब आतंकवादियों को लगने लगा कि उनके जीतने की संभावना शून्य है तो उन्होंने हार मान ली और भाग गए। यह “ऑपरेशन लंघ्रेट 1968″ था। इस ऑपरेशन में न केवल कैप्टन जसराम ने वीरतापूर्वक दुश्मनों को भागने पर मजबूर कर दिया, बल्कि उनकी पल्टन का कोई भी सैनिक घायल तक नहीं हुआ। उन्होंने अपने साहस से दुश्मन का मनोबल तोड़ दिया। इस संघर्ष में दो आतंकवादी मारे गए और छह घायल हो गए। वहाँ से बड़ी संख्या में हथियार और गोला – बारूद बरामद हुए।
कैप्टन जसराम की दृढ़ता और विशिष्ट वीरता को देखते हुए उन्हें भारत के शांतिकालीन सर्वोच्च वीरता सम्मान “अशोक चक्र” से सम्मानित किया गया। वे आज सबसे बुज़ुर्ग जीवित वीरता सम्मान विजेता हैं। उनकी हिम्मत, मेहनत और इच्छा शक्ति ने उन्हें युवा भारत की प्रेरणा स्रोत बनाया है । दुश्मन के पास कितने हथियार थे, यह जाने बगैर, उन्होंने निडर होकर मुकाबला किया। उसकी पल्टन के सैनिकों ने उन पर आँख बंद करके भरोसा किया; वे जानते थे कि कैप्टन जसराम के नेतृत्व में वे पूरी तरह से सुरक्षित थे। उन्होंने “काम ही पूजा है” और “कर्तव्य से बढ़कर कुछ भी नहीं” जैसी कहावतों को सही साबित किया। जब उनके बेटे सेना में शामिल हुए तो उनकी एकमात्र सलाह थी “अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहो, अपने सैनिकों की देखभाल करो और वे आपकी देखभाल करेंगे। ”
एक किसान के बेटे से लेकर देश के रक्षक तक, उनकी यात्रा आसान नहीं थी, लेकिन जब आपके दिल में जोश और शौर्य हो तो सब कुछ संभव है। हमे शौर्य का रास्ता दिखाने के लिए हम कर्नल जसराम को सलाम करते हैं। देशवासियों के विश्वास पर खरा उतरने का शौर्य, देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार रहने का शौर्य, दुश्मन की माफी को स्वीकार करने का शौर्य। लेफ्टिनेंट कर्नल जसराम सिंह यह देश आपकी वीरता को कभी नहीं भूलेगा।