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लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोर, PVC

भारत के राज्य बलों के प्रधान (कमांडर-इन-चीफ) मेजर जनरल एल-एड्रोस 7 वीं हैदराबाद इन्फैंट्री का निरीक्षण करने गए थे। यह दिन वहाँ कठोर प्रशिक्षण कर रहे युवा सैनिकों के लिए आम नहीं था। मेजर जनरल ने ग्रेनेड फेंकने की सीमा का दौरा करने का फैसला किया; वे युवा अधिकारियों और सिपाहियों को नियमित प्रशिक्षण करते देख रहे थे। सैनिकों के लिए, यह उनके जीवन का एक अविस्मरणीय क्षण था; उनके नायक उन्हें देख रहे थे, उनके हर कदम का मूल्यांकन कर रहे थे, उनके हाव भाव पढ़ रहे थे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि उनके जैसा बनना है तो यह सब करना ही होगा। एक सैनिक घबरा कर ग्रेनेड को सही ढंग से फेंकने में विफल रहा, जिसके परिणामस्वरूप ग्रेनेड फेंकने वाली खाड़ी में ही गिर गया। इस हादसे ने सबको डरा दिया; किसी के पास भी कार्रवाई करने या कुछ सोचने का समय नहीं था। अचानक, एक युवा अधिकारी ने ग्रेनेड उठाया और उसे दूर फेंक दिया। ग्रेनेड उस युवा अधिकारी के हाथ से निकलते ही फट गया, और उसके सीने में काफ़ी चोट लग गयी।

यह अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोर थे। मेजर जनरल एल-एड्रोस उनके साहस से बहुत प्रभावित हुए; उन्होंने तारापोर को व्यक्तिगत रूप से बधाई देने के लिए बुलाया। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने वास्तव में राष्ट्र के लिए लड़ने से पहले अपनी वीरता, अपनी बहादुरी और सोचने की क्षमता को साबित किया।

रतनजीबा से अर्देशिर तक

अर्देशिर बुरजोरजी तारापोर का जन्म 18 अगस्त, 1923 को मुंबई में हुआ था। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर महान योद्धाओं के परिवार से ताल्लुक रखते थे, रतनजीबा जिन्होंने शिवाजी की सेना में सेवा कि थी उनके पूर्वज थे। रतनजीबा को उनकी वीरता, वफ़ादारी और सेवाओं के रूप में सौ गाँवों का प्रभार दिया गया था। रतनजीबा से लेकर अर्देशिर तक जो गुण प्रवाहित हुए, उन गुणों ने उन्हें एक बहादुर और साहसी सैनिक बनाया। सौ गाँवों में से एक का नाम ‘तारापोर’ था और तब से यह परिवार का शीर्षक बन गया। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर के पिता बुरजोरजी ने पूर्ववर्ती हैदराबाद राज्य के कस्टम विभाग के साथ काम किया था और वे फारसी के साथ-साथ उर्दू के भी विद्वान थे।

लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर, बुरजोरजी के तीन बच्चों में से एक थे, उनकी एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई भी था। वे पूरे परिवार के लाड़ले थे और उन्हें  प्यार से ‘आदि’ कहा जाता था। सात साल की उम्र में आदि ने पुणे के सरदार दस्तूर बॉयज़ बोर्डिंग स्कूल में दाख़िला लिया और 1940 में अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। वे उस साल स्कूल के कप्तान भी बने। उनका हमेशा से ही एक सपना था; राष्ट्र की सेवा करने का, बख्तरबंद रेजीमेंट में शामिल होने का, टैंक के अंदर रह कर, बम और गोलियों से हर दुश्मन को मारने का। उनकी कल्पना की उड़ान भी उन्हीं की तरह वीर थी। यद्यपि वे अकादमिक रूप से एक असाधारण छात्र नहीं थे, लेकिन वे एक असाधारण खिलाड़ी ज़रूर थे और एथलेटिक्स, मुक्केबाज़ी, तैराकी, टेनिस और क्रिकेट में अपनी योग्यता साबित कर चुके थे। अपने मैट्रिकुलेशन के बाद, आदि को हैदराबाद इन्फैंट्री में कमीशन किया गया; आदि भावनाओं का भँवर महसूस कर रहे थे। उन्होंने अधिकारी प्रशिक्षण स्कूल, गोलकोंडा और बंगलौर में अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण पूरा किया। उन्हें 1 जनवरी 1942 को 2nd लेफ्टिनेंट के रूप में 7 वीं हैदराबाद इन्फैंट्री में कमीशन दिया गया। एक तरफ, वे राष्ट्र की सेवा करने के लिए खुश थे, दूसरी तरफ, वे पैदल सेना में शामिल होने के कारण दुखी थे।

वे बख्तरबंद रेजिमेंट में सेवा करना चाहते थे। वे अपने सपने को जीना चाहते थे; घातक टैंकों में राष्ट्र की सेवा करने का सपना। जब मेजर जनरल एल-एड्रोस ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से बधाई दी, तो उन्होंने इस अवसर को बर्बाद नहीं किया और राज्य बलों के बख़्तरबंद रेजिमेंट में स्थानांतरण की गुज़ारिश की। मेजर जनरल ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया और उन्हें 1 हैदराबाद इम्पीरियल सर्विस लांसर में स्थानांतरित कर दिया।

 

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर सहित अन्य सैनिकों को मध्य पूर्व भेजा गया था। 1 अप्रैल 1951 को, हैदराबाद राज्य के भारत संघ के साथ एकीकरण के कारण, उन्हें पूना अश्व में स्थानांतरित कर दिया गया। उनकी वीरता और असाधारण साहस ने उन्हें नए आयाम छूने के लिए प्रेरित किया  और अंततः वे एक कमांडिंग ऑफिसर बन गए, जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ 1965 के युद्ध में अपनी रेजिमेंट की कमान संभाली। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर की शादी पेरिन से हुई और वे एक बेटे ज़ेरक्स और एक बेटी ज़रीन के माता पिता बने।

1965 युद्ध

कश्मीर हमेशा भारत और पाकिस्तान की अटूट आशाओं और बे-शुमार सपनों के लिए युद्ध का मैदान बनता आया है। पाकिस्तान ने हमेशा इस सुन्दर प्रदेश पर कब्ज़ा करने और इसे अपने क्षेत्र का हिस्सा बनाने की कोशिश की है। और हमने हमेशा यह स्पष्ट किया है कि हम अपनी ज़मीन नहीं छोड़ेंगे।
1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध 5 अगस्त 1965 से 22 सितंबर 1965 तक चला। संघर्ष बिना किसी औपचारिक घोषणा के शुरू हुआ। युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान ने कि थी, जो 1962 में चीन द्वारा भारत की हार की वजह से, एक धारणा बना बैठा था कि भारतीय सेना कश्मीर में सैन्य अभियान का बचाव करने में असमर्थ होगी। इससे पहले 1965 में, पाकिस्तान कच्छ के रण में घुसपैठ करने में सफल हो गया था, इससे पाकिस्तान को यह विश्वास हो गया कि वह भारत से बेहतर स्थिति में हैं। 5 अगस्त 1965 को पाकिस्तान ने लगभग 33,000 सैनिकों को कश्मीरी स्थानीय लोगों के भेस में कश्मीर में भेज दिया। यह पाकिस्तानी सेना के नेतृत्व में “ऑपरेशन जिब्राल्टर” था। स्थानीय लोगों द्वारा भारतीय बलों तक यह सूचना पहुँची। प्रारंभिक संघर्ष कश्मीर के भीतर पैदल सेना और बख्तरबंद दोनों इकाइयों में हुआ जिसमें दोनों देशों की वायु सेना प्रमुख भूमिका निभा रही थी। अगस्त के अंत तक, पाकिस्तान ने टिथवाल, उरी और पुंछ जैसे क्षेत्रों में प्रगति की और भारत ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में हाजी पीर दर्रे पर कब्ज़ा कर लिया। हाजी पीर दर्रे पर कब्ज़े ने पाकिस्तान को हिला दिया और ऑपरेशन जिब्राल्टर को असफल कर दिया।

1 सितंबर 1965 को, पाकिस्तान ने जम्मू में अखनूर शहर पर कब्ज़ा करने के लिए “ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम” शुरू किया। जिसका मूल उद्देश्य भारतीय सैनिकों के रसद और संचार में कटौती करना था। इस हमले ने भारत को चौंका दिया। पाकिस्तानी बलों ने कश्मीर और पंजाब में भारतीय बलों और हवाई ठिकानों पर हमला करना शुरू कर दिया। भारत ने जवाब में पाकिस्तानी पंजाब पर हमला कर दियाI इस अप्रत्याशित हमले ने पाकिस्तानी सेना को पंजाब की रक्षा के लिए भारत पर हमला कर रहे सैनिकों को वापस जाने पर मजबूर कर दिया। इस तरह ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम भी विफल रहा और पाकिस्तान अखनूर पर कब्ज़ा नहीं कर सका। सत्रह दिवसीय युद्ध के कारण दोनों ओर हजारों सैनिक मारे गए और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बख्तरबंद वाहनों और टैंकों की यह सबसे बड़ी लड़ाई थी।

चाविंडा की लड़ाई

पाकिस्तान द्वारा ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर ’शुरू करने के बाद, 27 अगस्त, 1965 भारत ने पाकिस्तान के साथ युद्ध की घोषणा कर दी। जवाबी कार्रवाई की योजना के रूप में, भारतीय सेना ने पाकिस्तान के सियालकोट सेक्टर में चाविंडा और फिलोरा की चौकियों पर कब्ज़ा करने कि रणनीति बनाई। चाविंडा के क्षेत्र पर पाकिस्तानी बख्तरबंद ​​और पैदल सेना के दो बलों का कब्ज़ा था। 11 सितंबर को, लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर के अधीन भारत के ‘17 अश्व बल’ ने पीछे से फिलोरा पर एक आश्चर्यजनक हमले की योजना बनाई।

योजना में कोई गलती की गुंजाईश नहीं थी; भारत को एक सफल हमले की उम्मीद थी। लेकिन योजनाएँ कभी-कभी असफल भी हो जाती हैं। भारतीय रेजिमेंट चुपचाप आगे बढ़ रही थी, और तभी, दुश्मन ने वाजिरवली की ओर से हमला बोल दिया। दुश्मन के टैंक भारतीय सैनिकों पर लगातार बमबारी कर रहे थे, भारतीय सैनिक कही नहीं जा सकते थे, और स्थिति भयावह थी। वे फ़स चुके थे, इस अचानक हुए हमले ने भारतीय सैनिकों को अपनी अगली चाल पर विचार करने के लिए कोई समय नहीं दिया, दोनों ओर से बम और गोलियाँ दागी जा रहीं थीं। हमारे सैनिक मर रहे थे, हमारे टैंकों में आग लग गयी थी, इस स्थिति में भी लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने अपना धैर्य नहीं खोया, उन्होंने अपनी योजना में सुधार किया और एक पैदल सेना को फिल्लोरा पर हमले का आदेश दिया। उनका निर्णय क़ाबिले तारीफ़ था और उनकी टुकड़ी के लिए बेहद सफल साबित हुआ। दोनों पक्षों के बीच एक गहन लड़ाई लड़ी गई; लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर की सूझबूझ के कारण दुश्मन के 13 टैंक नष्ट हो गए। एक स्थिति जो शुरू में हमारे लिए घातक थी, उन्होंने उसे दुश्मन के लिए घातक और असहनीय बना दिया। पाकिस्तानी सेना मैदान छोड़ भाग निकली और भारत ने चाविंडा और फिल्लोरा दोनों पर कब्ज़ा कर लिया। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने शानदार जीत हासिल की, लेकिन लड़ाई में वे गंभीर रूप से घायल हो गए। उनकी हालत गंभीर थी, उन्हें तुरंत वापस आ जाने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने इस सुझाव को सिरे से ख़ारिज करते हुए, अपनी अंतिम साँस तक राष्ट्र के लिए लड़ने और अपने लोगों के साथ रहने का फैसला किया। यह राष्ट्र के प्रति उनका प्यार, और अपने पूर्वजों की तरह ही अपने साथियों को राह दिखाने; उनका नेतृत्व करने की गहरी इच्छा थी, जिसने उन्हें जाने नहीं दिया। उन्होंने वाजिरवली, जसोरन और बुटूर-डोगरंडी पर कब्ज़ा करने के लिए हमले की योजना बनाई। वे दुश्मन को भारतीय सैनिकों की वीरता और जीतने का ज़ज़्बा दिखाना चाहते थे।

13 सितंबर 1965 को लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने घायल होने के बाद भी 17 हार्स (पूना हार्स) और 9 गढ़वाल बटालियन के साथ पाकिस्तानी सेना पर हमला किया। अपनी गहरी अंतर्दृष्टि और सही योजना की मदद से, 14 सितंबर को उन्होंने वाजिरवली पर कब्ज़ा कर लिया। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने बुटूर और डोगरंडी के क्षेत्रों में छिपे हुए दुश्मन बलों पर हमला करना शुरू कर दिया। उन्होंने सुनिश्चित किया कि जीत उन्हीं की हो। वे आगे बढ़ रहे थे और अपने रास्ते में आने वाले प्रत्येक दुश्मन को नष्ट कर रहे थे। और, एक बार फिर वे एक घातक हमले में शामिल हो गए और दुश्मन के छह टैंकों को नष्ट कर दिया। यह हमला एक बड़ी सफलता थी क्योंकि उन्होंने 16 सितंबर तक 8 डोगरा रायफ़ल्स के साथ बुटूर और डोगरंडी, और 9 डोगरा बटालियन के साथ जसोरन पर कब्ज़ा कर लिया था।

युद्ध के दौरान उनके टैंक को कई बार गोलीबारी और धमाकों का शिकार होना पड़ा, लेकिन उन्होंने पीछे से हमला कर रही पैदल सेना का समर्थन करते हुए दोनों स्थानों पर अपना दबदबा बनाए रखा। भारतीय जवानों  को पता था कि उनके पास भारतीय सैनिकों पर हमला करने वाले टैंक पर नजर रखने वाले लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर हैं। उनके नेतृत्व से प्रेरित होकर, रेजिमेंट ने पूरे उत्साह और ऊर्जा के साथ दुश्मन पर हमला किया और लगभग साठ पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट कर दिया। उनके सैनिक जानते थे कि उनके प्रमुख लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर उन्हें कुछ नहीं होने देंगे। यह उनका प्रभावशाली नेतृत्व ही था जिसकी वजह से भारत के केवल 9 टैंक नष्ट हुए। दूसरी ओर दुश्मन जानता था कि वह हारने वाला है; वह गुस्से में लाल था क्योंकि एक भारतीय टैंक एक के बाद एक उसके हर टैंक को नष्ट किये जा रहा था। यह लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर का टैंक था। भारत युद्ध जीतने वाला था और लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर दुश्मन के हर टैंक को नष्ट करने में व्यस्त थे, ताकि उनके किसी भी सैनिक को कोई क्षति न पहुँचे। शत्रु ने उस टैंक को खत्म करने की ठान ली थी। और अचानक, दुश्मन के एक गोले ने उनके टैंक को आग लगा दी। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर युद्ध क्षेत्र में एक सच्चे नेता और ज़िम्मेदार प्रमुख की तरह शहीद हुए। उनके नेतृत्व और उनकी वीरता ने पाकिस्तानी सैनिकों को बहुत प्रभावित किया यहाँ तक की पाकिस्तानी सेना ने उनके दाह संस्कार के दौरान गोलीबारी बंद कर दी।

लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोर को राष्ट्र के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाज़ा गया। हम उनके उत्कृष्ट साहस, नेतृत्व, अदम्य सूझबूझ और सर्वोच्च बलिदान के लिए उन्हें सलाम करते हैं। हम उन्हें इस देश की ख़ातिर, मातृभूमि की गरिमा के लिए और हर भारतीय की सुरक्षा के लिए अनुकरणीय शौर्य दिखाने के लिए सलाम करते हैं। वे अपने घावों और चोटों के बारे में सोचे बिना अपने सैनिकों के साथ खड़े थे। उन्होंने अपनी अंतिम साँस तक लड़ने का वादा किया और उस वादे को पूरा भी किया। पूरे देश को लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर और उनके पूरे वंश पर गर्व है जो इस समकालीन बख्तरबंद युद्ध के बहुत पहले से इस देश और देश के नागरिकों के लिए लड़ते आ रहे हैं।