आदमख़ोर जानवरों से घिरा झारखंड का घना जंगल, जहाँ के पेड़ इतने घने कि सूरज की रोशनी भी बड़ी मुश्किल से ज़मीन को छु पाएI उसी जंगल में एक आदिवासी लड़का खरगोश के पीछे दौड़ रहा था। उसके छोटे-छोटे पैरों का उस जानवर की गति के साथ मेल खाना मुश्किल हो रहा था लेकिन उसके दृढ़ संकल्प ने उसका भरपूर साथ दिया, उसने खरगोश का पीछा करने से पहले बहुत इंतजार किया। उसके छोटे-छोटे हाथ उसकी उम्र के किसी अन्य बच्चे की तरह नरम नहीं थे, उसके खुरदरे हाथ बहादुरी और साहस की बहुत सारी कहानियाँ कह रहे थे। उसके नन्हें हाथों में कोई खिलौना नहीं था बल्कि कमान थी और कुछ तीर उसकी पीठ पर लकड़ी के एक तरकश में आराम कर रहे थे। वह एक शिकारी था और अपने काम को पूरा करना जानता था, वह उस खरगोश का शिकार करने के लिए दृढ़ था, वह खुद को साबित करने के लिए उत्सुक था। एक लम्बे इंतज़ार और कई घंटों की मेहनत के बाद वह अपने काम में सफल रहा। उसके लिए यह सिर्फ एक खरगोश नहीं था बल्कि उसके गरीब परिवार के लिए एक दिन का भोजन था। यह उसके लिए गेहूं, दूध या सब्जी थी, जिस पर उसका हक था। वह युवा लड़का गरीबी की मार और भूख के विनाश का दर्द महसूस कर सकता था। उस दिन उसने खुद से एक वादा किया कि आगे चल वह कुछ ऐसा कर जायेगा जिसे यह पूरा देश युगों तक याद रखेगा। उसने अपने और अपने परिवार के लिए सम्मान कमाने का फैसला किया।
वह गरीब आदिवासी लड़का लांस नायक अल्बर्ट एक्का थे, भारत के एक वीर सैनिक। अल्बर्ट एक्का, एक ऐसा नाम जिसने साहस के परचम फहराये, एक ऐसा शख्स जिसने अकेले ही 1971 के भारत-पाक युद्ध का रास्ता बदल दिया, एक ऐसा सैनिक जिसने अपने वादे को पूरा किया और अपने साहस के दम पर परमवीर चक्र के हक़दार बने।
धरती का बेटा
अल्बर्ट एक्का का जन्म गुमला, बिहार (अब झारखंड) में 27 दिसंबर 1942 को श्री जूलियस एक्का और श्रीमती मरियम एक्का के घर हुआ। वे एक बहुत ही गरीब ईसाई आदिवासी परिवार से ताल्लुक रखते थे। बहुत कम उम्र में ही अल्बर्ट, हर आदिवासी बच्चे की तरह शिकार की ओर आकर्षित हो गए। शिकार उनके लिए मनोरंजन का साधन नहीं था बल्कि पेट भरने का रास्ता था। अल्बर्ट जानवरों पर नज़र रखने और उनका अपने धनुष और तीर से शिकार करने में माहिर थे। शिकार के गुरों ने जीवन भर उनकी मदद की, पहले जीवित रहने और फिर धैर्य और दुश्मनों पर नज़र रखने की कला सीखने में। उनकी रूचि खेलों में भी थी। रोमांच के लिए उनके प्यार और शिकार कौशल एक उत्कृष्ट सैनिक बनने में मददगार साबित हुआ। जब अल्बर्ट बड़े हुए तब वे सेना में शामिल होने के लिए बहुत उत्सुक थे क्योंकि सैनिक बनना न सिर्फ उनकी ज़रूरत थी बल्कि उनके अंदर के साहस को सही रास्ता दिखाने का ज़रिया भी था।
उनका सपना तब साकार हुआ जब उन्हें 1962 में उनके 20वें जन्मदिन पर भारतीय सेना की बिहार रेजिमेंट में चुना गया। और जनवरी 1968 में उन्हें ‘गार्ड ऑफ ब्रिगेड’ की 14वीं बटालियन में स्थानांतरित कर दिया गया, जो अपने बहादुर सैनिकों और यंत्रीकृत पैदल सेना रेजिमेंट के लिए लोकप्रिय थी। वे खेलों के लिए हमेशा तैयार रहते थे और लगभग हर खेल, विशेषकर हॉकी में उत्कृष्ट थे। उन्होंने बालमदीन एक्का से शादी की और आगे जाकर वे एक बेटे, विन्सेन्ट एक्का के पिता बने।
1971 तक अल्बर्ट एक्का सेना में लगभग 9 साल की सेवा दे चुके थे और उन्होंने भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में विभिन्न जवाबी कार्यवाहियों में भाग लिया था। जब 1971 में भारत-पाक युद्ध छिड़ा, तब लांस नायक अल्बर्ट एक्का की इकाई को गंगासागर की लड़ाई में शामिल होने का फरमान मिला, यह क्षेत्र बांग्लादेश में अपने लक्ष्य के लिए भारतीय सशस्त्र बलों की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में बहुत महत्वपूर्ण था।
युद्ध
पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) पर पश्चिम पाकिस्तान का कब्ज़ा हजारों निर्दोष लोगों की हत्या, अमानवीयता और हठपूर्ण तानाशाही का उदाहरण था। वर्षों के मानसिक, शारीरिक और आर्थिक उत्पीड़न ने बांग्लादेशियों के मन में स्वतंत्रता की आग को जन्म दिया, और इसी आग ने “बांग्लादेश मुक्ति युद्ध” का गठन किया। इस संघर्ष के दौरान भारत की स्थिति बहुत संवेदनशील थी, वह या तो पूरी दुनिया की तरह इस अमानवीय बर्बरता को देखता रहता, या अपने पड़ोसी और उसके अधिकारों के लिए लड़ता, और भारत ने सही रास्ता चुना और इस तरह 1971 का भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ। यह युद्ध अपनी तरह का एकमात्र युद्ध था, भारत पर सभी मोर्चों से हमला किया जा रहा था, अर्थात्, भारतीय नौसेना प्रायद्वीप को बचा रही थी, थल सेना पश्चिमी और पूर्वी सीमाओं में दुश्मनों की कब्र खोद रही थी और वायु सेना गहरे नीले आकाश की सुरक्षा कर रही थी।
3 दिसंबर 1971, यह वह दिन था जब युद्ध छिड़ा और इसी दिन एक शौर्यवीर अपनी शौर्यगाथा लिख कर इस दुनिया से रुखसत हो गये। लांस नायक एक्का अपनी बटालियन 14 गार्ड्स के साथ तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के ब्राह्मणबारिया जिले में अगरतला (त्रिपुरा) से लगभग 6 किलोमीटर पश्चिम में गंगासागर में एक पाकिस्तानी चौकी पर कब्ज़ा करने के लिए गए। यह पोस्ट ढ़ाका के एक प्रमुख रेलवे लिंक पर स्थित थी और इसकी रणनीतिक स्थिति के कारण इसकी रखवाली में पाकिस्तानी सेना ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पूरी चौकी सैनिकों और बारूदी सुरंगों से लैस थी। यह क्षेत्र पाकिस्तान के लिए जितना महत्वपूर्ण था, उतना ही भारतीय सेना के लिए भी थाI हिंदुस्तान के लिए अखौरा के रास्ते ढ़ाका पर कब्ज़ा करने के लिए यह चौकी एकमात्र रास्ता थी।
पाकिस्तानी सेना की रीढ़ तोड़ने के लिए, 14 गार्ड्स ने 3 दिसंबर 1971 की रात को दुश्मन के ठिकानों पर हमला करने की योजना बनाई।
लांस नायक एक्का हमले में बटालियन की बायीं टुकड़ी में शामिल हो गए, जो सामने से हमला करने वाली थीI वे अंधेरी रात में चुपचाप आगे बढ़ रहे थे, लेकिन बारूदी सुरंगों के कारण दुश्मन सतर्क हो गया और फिर भारतीय सेना पर गहन गोलाबारी शुरू हो गयी।
भारतीय सैनिक भी कम नहीं थे और उन्होंने तुरंत दुश्मन पर जवाबी हमला शुरू कर दिया। दोनों ओर से गोलियाँ चलाई जा रही थीं, भारतीय सैनिक दुश्मन को कड़ी टक्कर दे रहे थे। दुश्मन की ओर से की जा रही गहन गोलीबारी उनके लिए आगे बढ़ना असंभव बना रही थी और बारूदी सुरंग पर कदम रखने का जोखिम उनकी मुश्किलें बढ़ा रही थी। जब हर कोई दूसरी तरफ से वार कर रहे सैनिक को मारने की कोशिश कर रहा था, लांस नायक एक्का ने दुश्मन की सबसे ज्यादा तबाही मचाने वाली हल्की मशीन गन जो कि एक बंकर से चलाई जा रही थी पर अपनी नज़र जमाईI अपने साथियों को मरता देख उस भारतीय का खून उबल गया, उसने अपनी सुरक्षा के बारे में एक बार भी नहीं सोचा और उस बंकर पर धावा बोल दिया। दुश्मन को निशाना बनाने और शिकार करने के उनके बचपन के गुर इस पूरे राष्ट्र के बचाव के लिए काम आए और वे दुश्मन से बचते बचाते अकेले उस बंकर तक पहुंच गए।
उन्होंने अकेले ही दो सैनिकों को मार गिराया और बंकर पर कब्ज़ा कर लिया। हाथापाई में वे गंभीर रूप से घायल हो गए, उनका पेट बुरी तरह से जख़्मी हो चुका था, लेकिन वे रुके नहीं। लांस नायक एक्का द्वारा उठाए गए इस कदम ने उनकी बटालियन की जीत निश्चित कर दी। अपनी जान की परवाह किये बिना ही वे आगे बढ़ते गए, वे अभी भी दुश्मनों को देख सकते थे, वे अभी भी कई दुश्मनों को मौत के घाट उतार सकते थे।
आदिवासी नायक
जब उन्होंने पहले बंकर पर कब्ज़ा कर लिया, तो लांस नायक एक्का ने वह मशीन गन नेस्तनाबूत कर दी। अन्य भारतीय सैनिक उनके साथ आए और जल्द ही, वे अपने उद्देश्य के उत्तरी छोर पर पहुंच गए। एक शत्रु की मध्यम मशीन गन से उन पर गोलीबारी शुरू हो गयी, जिससे एक बार फिर भारी नुकसान हुआ। जब हर भारतीय सैनिक गोलियों से घायल हो गया, तब लांस नायक एक्का ने उन्हें जीत की राह देखने में मदद की, वे एक बार फिर अपने साथियों की मदद के लिए आगे बढ़े और रेंगते हुए दुश्मन की चौकी तक पहुंचेI उनकी चौटें बार-बार मदद की गुहार कर रही थी लेकिन उनका ज़ज़्बा और शौर्य हार मानने को तैयार नहीं थाI चौकी तक पहुँचते ही उन्होंने सबसे पहले दुश्मन के बंकर पर एक ग्रेनेड फेंका, एक धमाके के साथ बंकर में खड़ा सैनिक दुश्मन ढे़र हो गया। लेकिन मशीन गन अभी भी चल रही थी, ऐसा लग रहा था कि दुश्मन हर भारतीय सैनिक की जान लेने की कोशिश कर रहा था।
लांस नायक एक्का ने एक भीनी सी मुस्कान के साथ इस चुनौती को स्वीकार किया और बंकर में प्रवेश करने के लिए बाजू की दीवार को तोड़ दिया, फिर उन्होंने दुश्मन के उस सैनिक को गोली मार दी, जो गोलीबारी कर रहा था और फिर उस घातक हथियार को तहसनहस कर दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी भारतीय सैनिक को अपने जीवन का बलिदान तब तक नहीं देना पड़े जब तक कि वे उनके सामने ढ़ाल बनकर खड़े थे। अपने रेजिमेंट के आदर्श वाक्य “पहला हमेशा पहला” को याद करते हुए उन्होंने अपनी टुकड़ी के साथ एक के बाद एक बंकरों पर कब्ज़ा किया।
वे पीछे मुड़कर नहीं देख रहे थे, वे तो अपने देश की वीरता दुनिया को दिखा रहे थे, वे हर बढ़ते कदम के साथ अमानवीयता को चकनाचूर कर रहे थे, वे हर क्षण किसी निर्दोष को बचा रहे थे। एक घायल शरीर और एक दृढ़ मन के साथ लांस नायक एक्का आगे बढ़े, और रक्त की बहती धार उनके पीछे चलने लगी, जैसे वह भी उनकी वीरता को सलामी दे रही हो। यह उनका साहस और निष्ठा ही थी जिसने पहली मशीन गन नष्ट करते समय गंभीर रूप से जख्मी होने के बाद भी उन्हें हारने नहीं दिया।
उन्हें वापस जाने के आदेश मिले लेकिन वे रणभूमि छोड़ कर नहीं गए, वे अपने फैसले पर अडिग रहे क्योंकि उन्हें लगा कि दूसरी मशीनगन को नष्ट करना उनका कर्तव्य था, इससे पहले कि वह भारतीय सैनिकों को ख़त्म कर डाले और उन्होंने उसे ख़त्म करके ही दम लियाI हालांकि करीबी मुठभेड़ में लांस नायक एक्का गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन अपनी टुकड़ी के उद्देश्य को लगातार आगे बढ़ाने से खुद को रोक नहीं पाए। उनकी साहसी कार्रवाई से उनकी कंपनी को दुश्मन को हराने और गंगासागर पर कब्ज़ा करने में बहुत मदद मिली। गंगासागर के पतन ने दुश्मन को अखौरा खाली करने के लिए मजबूर कर दिया और फलस्वरूप भारतीय सैनिक जल्द ही ढ़ाका के अपने विजयी मार्च पर निकल पड़े। लेकिन वह वीर योद्धा जीत का मीठा अमृत पीते ही सबको अलविदा कह गया, उन्होंने गंभीर चोटों के कारण दम तोड़ दिया। अगरतला से 15 किलोमीटर दक्षिण में दुक्ली के श्रीपल्ली गांव में उस बहादुर सैनिक के अवशेष दफनाए गए, जिसके बिना युद्ध का रुख कुछ और ही होता।
लांस नायक अल्बर्ट एक्का को मरणोपरांत अपनी वीरता और परम संकल्प के लिए ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने वर्ष 2000 में 50वें गणतंत्र दिवस पर उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया। उनके गृह राज्य झारखंड ने भी रांची के एक प्रमुख सड़क चौराहे और गुमला जिले में एक पूरे ब्लॉक का नाम उनके नाम पर रखकर उन्हें सम्मानित किया। बांग्लादेश, जिस देश को उन्होंने बचाया, ने स्वतंत्रता के लिए अपनी लड़ाई में उनके बलिदान के लिए उन्हें ‘फ्रेंड्स ऑफ लिबरेशन वॉर ऑनर’ से सम्मानित किया।
हम लांस नायक अल्बर्ट एक्का को उनकी निष्पक्ष भावना और सर्वोच्च बलिदान के लिए सलाम करते हैं। हम उन्हें जीवन भर शौर्य प्रदर्शित करने के लिए सलाम करते हैं, एक निम्न पृष्ठभूमि से चलकर सफलता और बलिदान की सीढ़ियों पर कदम रखने के लिए सलाम करते हैं, अपने वर्तमान को अपने अतीत पर आश्रित होने देने के लिए सलाम करते हैं, अपने बचपन को अपने भविष्य का मार्ग प्रशस्त न करने के लिए सलाम करते हैं। वे एक आदिवासी; एक अज्ञात और अनदेखी जनजाति से थे, लेकिन यह उनकी कड़ी मेहनत और दूरदर्शिता थी जिसने ना केवल इतने निर्दोष लोगों को बचाया बल्कि मातृभूमि की प्रतिष्ठा को भी सलामत रखा। वे एक सच्चे नायक, एक सच्चे देशभक्त और एक सच्चे सैनिक थे। उनकी अभूतपूर्व और अविश्वसनीय वीरता उन्हें सभी भारतीयों और बांग्लादेशियों के दिलों में हमेशा जीवित रखेगी।