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Subedar Major योगेन्द्र सिंह यादव PVC

हर शाम एक छोटे से गाँव के सभी किशोर, वयस्क और बूढ़े एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे इकट्ठा हुआ करते थे, वे सेना की सभी युद्ध कथाएँ सुनते थे; वे उनकी शौर्यगाथा सुनते थे जो घर (राष्ट्र) की रक्षा करके अपने घर लोटते थे। वे उस ताकत और शौर्य के बारे में बात करते जो एक व्यक्ति को सेनाओं से विरासत में मिलता है।

 

एक 16 साल का लड़का, मृदुभाषी, अपने युवा चेहरे पर एक निश्छल मुस्कान और विनम्रता लिए, जिसे आप आज भी देख सकते हैं; उसी उत्साह के साथ रोज वही कहानियाँ सुनने आता। वह हमारी भारतीय सेना के बारे में सारी जानकारी प्राप्त करने के लिए हर दिन वहाँ आता और सब सुनता। बड़े सपने देखने वाला वो बच्चा था योगेंद्र सिंह यादव।

वह अपनी उम्र के अन्य लड़कों की तरह नहीं था, वह अपना रास्ता जानता था और वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तैयार था, ज़रूरत थी तो  बस एक मार्गदर्शन, एक समर्थन कीI यह उनकी दूरदृष्टि, उनका साहस और उनका उत्साह  ही था जिसने देश को उनकी उपस्थिति से गौरान्वित किया और देश से कुछ लेने के बजाय उन्होंने देश को वह दिया जिसका यह देश हमेशा से ही हक़दार था; जीत और केवल जीत।

सपना और हक़ीकत

10 मई 1980 को योगेंद्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के सिकंद्राबाद कस्बे के औरंगाबाद अहीर गाँव में सैनिकों के परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री करण सिंह यादव कुमाऊँ रेजिमेंट से थे। उन्होंने 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों में भाग लेकर देश का मान बढ़ाया था। उनकी माँ श्रीमती संतरा देवी अपने चार बेटों में से योगेंद्र को सबसे ज्यादा प्यार करती थीं। योगेन्द्र ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पास के स्कूल से प्राप्त की। उनके पिता एक जूनियर कमीशंड अधिकारी थे, जिनके कंधों पर राष्ट्र और 6 लोगों के परिवार की ज़िम्मेदारी थी, इसलिए हमेशा ज़रूरतों को पूरा करने पर ध्यान दिया जाता था। सेना उनके परिवार के लिए एक अच्छी ज़िन्दगी व्यतीत करने का सबसे आसान तरीका था और यही कारण है कि जब योगेंद्र सिर्फ 15 साल के थे तब उनके बड़े भाई सेना में शामिल हो गए।

 

योगेंद्र ने सेना को हमेशा एक सपने के रूप में देखा, सफलता के मार्ग के रूप में देखा। हालाँकि उनकी दुनिया सीमित थी लेकिन उनके सपने बहुत बड़े और खूबसूरत थे। वे अक्सर युद्ध के सपने, जीत के सपने, साहस के सपने देखा करते थे। उनके सपने सच हुए जब उनके भाई छुट्टियों पर घर आए और योगेंद्र को सेना में शामिल होने के लिए कहा। योगेंद्र उस समय 12 वीं कक्षा में पढ़ रहे थे, इसलिए उन्होंने जवाब दिया कि वह एक बार अपनी इंटर परीक्षा पास कर ले, फिर सेना में जायेंगे। जिस पर  उनके भाई ने तर्क दिया की एक बार कोशिश तो करें। उनके पिता और भाई को यकीन था कि सेना परीक्षा में पास होने में उन्हें कुछ साल लगेंगे लेकिन योगेंद्र को पता था कि वे एक ही बार में सफल हो जाएंगे।

और यही हुआ। जब योगेंद्र ग्रैनेडियर रेजिमेंट, अब्दुल हमीद की रेजिमेंट, होशियार सिंह की रेजिमेंट में तैनात हुए, तब उन्हें यकीन हो गया की ईश्वर उनके साथ हैं। यह उनके लिए एक सपने के सच होने जैसा था। यादव के दयालु, विनम्र और ज़िम्मेदार व्यक्तित्व का श्रेय उनकी रेजिमेंट में सिखाये गए मूल्यों को जाता है और उनकी रेजिमेंट की बदौलत ही वे एक मजबूत, स्वतंत्र और साहसी सैनिक बन पाए।

 

युद्ध और विजय

जनवरी 1999 में, योगेंद्र छुट्टी पर 2 महीने के लिए अपने घर आए। पूरा परिवार उन्हें वहाँ देखकर खुश था। यह उनकी माँ के लिए किसी त्यौहार से कम नहीं था। योगेंद्र भी खुश थे, हालांकि उन्हें नहीं पता था कि पिछले 2 सालों से वे जिस घाटी की रक्षा कर रहे थे, वह बहुत बड़े खतरे में थी। इस छुट्टी के दौरान उनकी शादी तय हो गई, शादी 5 मई को थी। वे मार्च के पहले सप्ताह में कश्मीर तो गए लेकिन मई में वापस आने के वादे के साथ। योगेंद्र को बाकि देशवासियों की ही तरह पूरा यकीन था कि उनका भारत सुरक्षित था क्योंकि कहीं भी युद्ध की हवा नहीं थी ।

 

कारगिल धरती पर किसी स्वर्ग से कम नहीं है;  खूबसूरती पहाड़ियों पर जमी बर्फ कि सफेद कालीन एक सपने जैसी  दिखती है। इस खूबसूरत घाटी में गर्मियाँ जितनी सुनहरी होती हैं, सर्दियाँ उतनी की मुश्किल I ताज़े पानी के झरने जो गर्मियों में छलकते रहते हैं, सर्दियाँ में पूरी तरह जम जाते हैं। गर्मियों में सूरज कई बार चमकता है और सर्दियों में घाटी को अलविदा कह देता है। बच्चे गर्मियों में आराम से चहलकदमी करते हैं लेकिन सर्दियों में वे भी इसे अकेला छोड़ कर चले जाते हैं। नियंत्रण रेखा (LOC) इस सुंदर जगह  से गुजरती है इसलिए यह दोनों देशों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण जगह  है। सर्दियों के दौरान उक्त स्तिथियाँ ठंड के दिनों में यहाँ जिंदा रहना लगभग नामुमकिन बना देती हैं। दोनों देशों के बीच इस दौरान अपनी-अपनी चौकियों को छोड़ने का एक मूक समझौता किया गया था।

3 मई 1999 को, एक स्थानीय चरवाहे ने कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ की सूचना दी। 5 मई को, एक गश्ती दल को इस जानकारी के पीछे की वास्तविकता जानने के लिए भेजा गया था। घुसपैठियों ने  5 सैनिकों को प्रताड़ित करके मार डाला। भारतीय सेना ने बिना किसी और देरी के कश्मीर से कारगिल तक सैनिक भेजे। दूसरी ओर देशवासियों को मसले की गंभीरता के बारे में कुछ पता नहीं था, वे जानते थे कि कुछ चल रहा था, लेकिन यह एक घातक युद्ध का रूप  ले लेगा, यह किसी ने सोचा भी नहीं था।

 

भारत दुश्मन के इरादों से अनजान था, क्योंकि लाहौर समझौते ने राष्ट्रों के बीच एक दोस्ती को जन्म दिया था, और यह घुसपैठ समझौते के कुछ महीने बाद ही हुई।

 

इस हमले के पीछे का मकसद लद्दाख और कश्मीर के बीच की कड़ी को तोड़ देना था, ताकि भारतीय सेनाओं को सियाचिन से हाथ धोना पड़ जाये। दहशतगर्दों के पास हथियार तो थे ही, साथ ही साथ वे युद्ध की हर कला से वाकिफ़ थे । इससे भारत सरकार को हमलों में पाकिस्तान की सरकार की भागीदारी का एहसास हो गया। हालांकि शुरुआत में पाकिस्तानी सरकार ने अपनी सेना की भागीदारी से इनकार किया लेकिन बाद में इसकी पुष्टि की।

 

इससे पहले कि भारत सरकार इस विश्वासघात के बारे में जान सके, पाकिस्तान की लाइट इन्फैंट्री 132 भारतीय चौकियों पर कब्जा कर चुकी थी और भारत के अन्दर लगभग 130 वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गयी थी। भारतीय सेना ने अपनी चौकियाँ फिर से हथियाने के लिए “ऑपरेशन विजय” शुरू किया और यह ऑपरेशन पाकिस्तान के मुँह पर एक तमाचा था।

युवा योद्धा

20 मई 1999 को यादव जम्मु पहुँचे। उनकी शादी को केवल 15 दिन ही हुए थेI उनकी टुकड़ी को कश्मीर के द्रास सेक्टर भेजा गया था। सैनीकों को अभी भी नहीं पता था कि युद्ध छिड़ चुका है। लेकिन योगेंद्र को इस बात का अंदाजा हो गया था कि कुछ गड़बड़ है, लेकिन वो नौजवान घबराया नहीं, वो तो जल्द से जल्द युद्ध के मैदान में पहुंचना चाहता था, वह लगातार अपने सपनों को साकार करने के लिए भगवान को धन्यवाद दे रहा था; राष्ट्र के लिए लड़ने का सपना, जीत का सपना।

 

जब वे द्रास पहुँचे, तो उनकी इकाई टोलोलिंग हिल पर लड़ रही थी। गोलीबारी के दौरान उनकी यूनिट के एक सैनिक के सिर में गोली लग गई, उनके शव को पहाड़ी से नीचे लाया गया। जब योगेंद्र ने शरीर को देखा, तो वे अपने खून में उबाल महसूस कर रहे थे, प्रत्येक सैनिक, प्रत्येक भारतीय उनके लिए परिवार की तरह था और जब उन्होंने देखा कि दुश्मन ने उनके घर के अंदर न केवल कब्ज़ा किया है, बल्कि उनके परिवार के सदस्यों को भी मार रहा है; उन्होंने अंतिम साँस तक लड़ने का फैसला किया।

 

उनकी यूनिट को टाइगर हिल पर तीन रणनीतिक बंकरों को फिर से स्थापित करने का काम सौंपा गया था, जो जम्मू और कशमीर के द्रास-कारगिल क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी में से एक है। दुश्मन पहाड़ी की चोटी पर बैठा था; उनके पास खूबसूरत घाटी, सुन्दर झरने, खिले हुए फूल और हरी घास का पूरा दृश्य था। गर्मी अपना जादू दिखा रही थी लेकिन दुश्मन की नजर हम पर थी।

घाटी की स्थलाकृति उन्हें भारतीय सैनिकों की हर गतिविधि पर नज़र रखने का लाभ दे रही थी, क्योंकि उनके सामने मैदान था और दूसरी तरफ  चढाई जो नब्बे डिग्री तक खड़ी थी, दुश्मन को यकीन था कि कोई भी पहाड़ी पर चढ़ने की हिम्मत नहीं करेगा मैदानों के बीच से होते हुए आना ही उन तक पहुँचने का एकमात्र तरीका था। पहाड़ी की खतरनाक चढाई ने उन्हें आश्वासन दे दिया था कि अगर भारतीय सैनिक इसे चढ़ने की कोशिश करते हैं तो भी वे निश्चित रूप से मर जाएंगे। भारतीय सेना की रणनीति बहुत स्पष्ट थी, उन्होंने अपनी इकाई को दो समूहों में बाटा दिया, एक को दाईं ओर से और दूसरी को बाईं ओर से भेजा गया ताकि दुश्मन का ध्यान बँट जाये। उन्हें शुरुआती जानकारी यह मिली थी कि 4 या 5 आतंकवादियों ने पहाड़ी पर कब्जा कर लिया था।

यह काम बहुत ज्यादा मुश्किल था, जिस पहाड़ी पर दिन के उजाले में चढ़ना एक बुरे सपने की तरह था, हमारे बहादुर सैनिकों ने रात में भारी हथियारों और गोला बारूद के साथ उस सपने को जिया। 4 जून 1999 की वह रात, खामोश घाटी में हमारे बहादुर सैनिकों का खून बह रहा था। घाटी दर्द से तड़प रही थी और पूरे देश के दिल में गोलियाँ चुभ रही थीं। इक्कीस सैनिक चुपचाप असंभव को संभव बना रहे थे, वे टाइगर हिल पर चढ़ रहे थे। 21 में से 7 सैनिक आगे बढ़े और पहले पहुंचे। नायब सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव उनमें से एक थे। 5 जून की रात उनकी बटालियन 18 ग्रेनेडियर ने दुश्मन के 3 हमलों का सामना किया। दुश्मन उनसे तादाद में ज्यादा थे। वीर जवानों ने साहस और ताकत का प्रमाण देते हुए वो लड़ाई लड़ी लेकिन दुर्भाग्य से योगेंद्र सिंह यादव को छोड़कर सभी 6 भारतीय सैनिकों की मृत्यु हो गई।

 

उन पर भी 17 गोलियाँ चलाई गईं लेकिन राष्ट्र के प्रति उनकी वफ़ादारी को कोई नहीं मार सका। उनकी आंखों के सामने भारतीय सैनिकों के शव पड़े थे, उनका खून उनकी मातृभूमि की मिट्टी के साथ मिल गया था और उस समय उनके लिए वही ताकत का इकलोता जरिया था। वह बहुत दर्द में थे लेकिन उनकी हिम्मत उन्हें हारने नहीं दे रही थी। पाकिस्तानी सैनिकों की आगे की योजना को सुनने के लिए योगेंद्र ने मृत होने का नाटक किया।

वे 500 मीटर निचे  स्थित भारत की मध्यम मशीन गन पोस्ट पर हमला करने की बात कर रहे थे। वे अपनी आँखों के सामने सब कुछ काला होता हुआ देख सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी पलटन को यह सूचना देने के लिए खुद को जिंदा रखा, बस यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनका भारत सुरक्षित था, भले ही वे न रहे।

तभी, दो पाकिस्तानी सैनिक आए और यह सुनिश्चित करने के लिए की सारे भारतीय सैनिक मर चुके हैं, पहले से ही मारे गए सैनिकों पर गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया । यादव की छाती पर भी एक गोली चलाई गई थी, उन्होंने सोचा कि उन्होंने देश को बचाने का आखिरी मौका गंवा दिया है लेकिन पाँच रुपये के सिक्के ने उनकी जान बचा ली जो उनकी छाती की जेब में था। राष्ट्र के लिए कुछ करने के उनके जज्बे को एक धक्के की जरूरत थी और उन्हें वह धक्का तब मिला जब एक पाकिस्तानी सैनिक के पैर उन्हें छू गए, उन्हें एक सनसनी महसूस हुई। वे अपने जीवन के साथ अपने सपने को मरने देने के लिए तैयार नहीं थे। किसी भी क्षण को बर्बाद किए बिना उन्होंने एक हथगोला निकाला और उसे उस पाकिस्तानी सैनिक पर फेंक दिया, जो उनके कुछ ही फीट की दूरी पर खड़ा था। ग्रेनेड के विस्फोट ने उसे उड़ा दिया।

 

फिर वे पास की राइफल की ओर बढ़ गए और दुश्मन पर गोलीबारी शुरू कर दी। वे लगातार अपनी जगह बदल रहे थे जिससे पाकिस्तानी सैनिकों को लगे की वहाँ एक से अधिक सैनिक थे। इससे पाकिस्तान के सैनिकों में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई और उन्होंने सोचा कि भारतीय सेना का दूसरा बल आ गया है। वे इतने भयभीत हो गए कि उन्होंने चौकी छोड़ने का फैसला कर लिया और उसी क्षण भाग गए। यादव अभी और जानकारी पाने के लिए रेंग रहे थे; अचानक उन्होंने पाकिस्तानी सेना के अड्डे, उनकी मोटर स्थिति को देखा। वे जल्द से जल्द यह सूचना अपनी टुकड़ी तक पहुँचना चाहते थे, तभी उन्होंने यह देखने के लिए कि कहीं  कोई और भारतीय सैनिक जिन्दा तो नहीं है, उनकी और गए लेकिन सरे सैनिक मर चुके थे, योगेन्द्र उनकी लाशें देख कर बहुत रोयेI

 

जल्द ही उन्होंने खुद को फिर से संभाला, उनकी बाँह टूट गई थी, उन्होंने अपनी टूटी भुजा को अपनी पीठ पर लाद लिया और रेंगते हुए एक नाले के पास पहुँचे और एक गद्दे में गिर गए। वहाँ, उन्होंने कुछ भारतीय सेना के जवानों को देखा, जो उन्हें गड्ढे से निकालकर कमांडिंग ऑफिसर के पास ले गए थे। यादव दर्द में कराह रहे थे लेकिन उन्होंने पूरी कहानी सुनाई। जिसके बाद वे बेहोश हो गए।

 

3 दिनों के बाद वे होश में आए, उनका पहला सवाल था कि वे जीते या नहीं। जब उन्हें बताया गया कि भारतीय सेना ने टाइगर हिल पर सफलतापूर्वक कब्जा कर लिया है, वह भी बिना किसी भी भारतीय सैनिक की जान गवाए। उन्हें यकीन हो गया कि उनका सपना सच हो गया था। अगस्त 1999 में, नायब सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव को भारत के सर्वोच्च सैन्य पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

उनकी शौर्यगाथा पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण है; उन्होंने साबित कर दिया कि उम्र निश्चित रूप से सिर्फ एक संख्या है जब उन्होंने 19 साल की उम्र में परम शौर्य दिखाया और परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले सबसे युवा व्यक्ति बन गए। उन्होंने यह साबित कर दिया कि अगर आप जीने के लिए उत्साह रखते हैं तो मौत अपना रास्ता बदल सकती है, जब 18 गोलियाँ उन्हें  मार नहीं सकीं। उन्होंने साबित किया कि अनुभव तो उम्र के साथ आता है, लेकिन शौर्य आपके भीतर ही रहता है जब उन्होंने सिर्फ ढाई साल की सेवा में अपनी शौर्य की गाथा लिख दी। उन्होंने साबित कर दिया कि अगर हम सपने देखते हैं तो आप और मैं भी ऐसा कर सकते हैं। हम सक्षम हैं और हम पर्याप्त हैं।

 

नायब सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव, न सिर्फ भारत अपितु शत्रू देश, आपकी असाधारण बहादुरी को कभी नहीं भुला पायेगा, वो बहादुरी जिसने कारगिल युद्ध का रास्ता बदल दिया। हमें आप पर गर्व है।