वर्ष 1958 में सबसे असाधारण और निश्चित रूप से असामान्य “राष्ट्रमंडल खेल” का गवाह बनने के लिए पूरा वेल्स देश कार्डिफ आर्म्स पार्क में इकट्ठा हुआ। वहाँ हर कोई अपने पसंदीदा धावक के लिए ज़ोर-ज़ोर से उत्साह वर्धन कर रहा था। सभी के होठों पर केवल एक ही नाम था और वह एक भारतीय का था। दो शताब्दियों तक हम पर शासन करने वाले अंग्रेज अब एक भारतीय को प्रोत्साहित कर रहे थे। वह धावक अपने देश और अपने लोगों के लिए भाग रहा था। मिल्खा ने उस दिन सिर्फ स्वर्ण पदक ही नहीं जीता बल्कि राष्ट्र के सम्मान और प्रतिष्ठा को बनाए रखते हुए हम सभी को गौरवान्वित किया। स्वर्ण जीतने के बाद उनकी आँखों में गर्व के साथ एक ऐसे राष्ट्र में तिरंगा फहराने की ख़ुशी भी थी जहाँ हमें एक गुलाम देश से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता था।
यह तो सिर्फ शुरुआत थी, सम्मान और गर्व की दौड़ तो अभी बहुत लम्बी थी; उन्हें मुकाबले के बाद ब्रिटेन की रानी द्वारा शीर्ष सम्मान से सम्मानित किया गया। इस क्षण ने एक स्वतंत्र भारत के लिए खेलों में पहली बड़ी सफलता को चिन्हित किया, जीत बड़ी थी और सम्मान भी। रानी के बगल में बैठी एक भारतीय महिला उनके पास दौड़ती हुई आयीं और कहा, “मिल्खा सिंह, आपने भारत को गौरवान्वित किया है और पंडित जी (प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू) जानना चाहते हैं कि आपको क्या चाहिए।” वह महिला और कोई नहीं बल्कि पंडितजी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित थीं, जो उस समय यूनाइटेड किंगडम में भारतीय उच्चायुक्त थीं। मिल्खा कुछ भी माँग सकते थे और पंडित जी खुशी-खुशी उनकी हर माँग पूरी कर देते, लेकिन उनका गर्व और उनका स्वाभिमान भारत देश जितना ही ऊंचा था। अपने आत्म-सम्मान को बरक़रार रखते हुए उन्होंने जवाब दिया कि अगर पंडित जी उन्हें कुछ देना चाहते हैं, तो पूरे भारत में एक दिन की सरकारी अवकाश घोषित कर दीजिये। अपने वादे पर खरा उतरते हुए नेहरूजी ने अवकाश घोषित किया I इस तरह मिल्खा सिंह की सफलता के साथ-साथ उनके आत्म-सम्मान के वृतांत भी दूर-दूर तक चर्चित हुए। वे हर मायने में एक सच्चे नायक हैं; एक कर्मठ सैनिक, एक बेहतरीन धावक और एक ऐसे देशभक्त जिन्होंने पहली बार देश को स्वर्ण पदक का तोहफा देकर गौरवान्वित किया ।
दो देशों की कथा
मिल्खा का जन्म 20 नवंबर 1929 को पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) के गोविंदपुरा, मुज़फ़्फ़रगढ़ में एक सिख राजपूत (राठौड़) किसान के घर हुआ थाI उनके पूर्वज मूल रूप से राजस्थान के लुहार थे। मिल्खा के 14 भाई बहन थे, जिनमें से आठ की मृत्यु विभाजन से पहले ही हो गयी थीI वे अपने परिवार में एकमात्र बच्चे थे जिन्हें स्कूल भेजा गया। उनका स्कूल उनके छोटे से गाँव से दस किलोमीटर दूर था, उन्हें स्कूल पहुँचने के लिए नंगे पाँव चलना पड़ता था और यहाँ तक कि एक छोटे से तालाब को भी पार करना पड़ता था। पूरी दुनिया जिस सहनशक्ति की बात करती है, वह उस दस किलोमीटर की दूरी तय करने से हासिल हुई थी क्योंकि गर्मियों के दौरान एक बच्चे के लिए चिलचिलाती रेत पर चलना किसी बुरे सपने से कम नहीं था। लेकिन मिल्खा हर रोज़ दौड़ कर घर पहुँच जाते, वे सूरज के ढ़लने और रेत के ठंडे होने का इंतज़ार नहीं करतेI मिल्खा के गाँववालों के बीच सामुदायिक सम्बन्ध बहुत मजबूत थे। वे एक मस्जिद में विभिन्न धर्मों के छात्रों के साथ अध्ययन करते थे। वे अपनी बड़ी बहन ईसर के बहुत करीब थे।
जब मिल्खा लगभग 15 साल के हुए, तब विभाजन की सुनामी ने भारत को हिला दिया। उनका गाँव मुल्तान के पास एक सुदूर इलाके में स्थित था। वहाँ कोई अखबार तक नहीं पहुँचता था, इसलिए ग्रामीणों को देश में चल रही राजनैतिक उथल-पुथल और विभाजन की कोई जानकारी नहीं थी। जब एक ग्रामीण ने सामान खरीदने के लिए निकटतम शहर की यात्रा की, तो उसे देश की तत्कालीन स्थिति के बारे में पता चला। उसने पूरी स्थिति ग्रामीणों को सुनाई। जल्द ही ग्रामीणों को मारने के लिए गाँव के बाहरी इलाके में उग्रवादियों की भीड़ पहुँच गयी। उस समय, स्थिति का पता चलते ही गाँववाले एक दूसरे की रक्षा के लिए खड़े हो गए। उस भयानक रात के बाद आखिरकार भीड़ सुबह गाँव में घुस गई। उन्होंने सभी को मारना शुरू कर दिया, वह दृश्य दिल दहला देने वाला था। मिल्खा के पिता अपने परिवार को बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन वे अकेले उन सब का सामना न कर पाए। भीड़ ने पहले मिल्खा की कुछ बहनों और एक भाई की निर्मम हत्या की और फिर उनके पिता को उनकी आँखों के सामने चीर दिया। उनके पिता के अंतिम शब्द थे, “भाग मिल्खा, भाग I” मिल्खा अपनी जान बचाने के लिए गाँव के पास जंगल में भाग गएI उन्होंने पूरी रात वहीं बितायीI वे छिपे रहे, जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी वैसे-वैसे उनका डर भी बढ़ता जा रहा थाI उनकी आँखों के सामने उनकी बहनों और भाई की मौत, उनके पिता की पीठ पर घोपी गयी तलवार का दृश्य छा रहा थाI पंद्रह साल की छोटी उम्र में यह सब देखना उनके लिए किसी हादसे से कम नहीं थाI हमेशा अपनों के प्यार और दुलार के कायल मिल्खा आज बिलकुल अकेले थेI एक ही रात में उनसे उनका भरा पूरा परिवार छिन गयाI
अगली सुबह वे रेलवे स्टेशन पहुँचे, वहाँ का नज़ारा उनके गाँव से कम भयानक नहीं था। जमीन पर खून और शव पड़े थे। लोग सुरक्षित दिल्ली पहुँचने के लिए ट्रेन में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने भी यही किया। ट्रेन पर चढ़ना आधी जंग जीतने जैसा था, लेकिन आधी जंग अभी भी बची थीI तभी एक यात्री ने उन पर तरस खा कर उन्हें महिलाओं के डिब्बे में छुपने में मदद की।
वे बड़ी मुश्किल से पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुँचे। मिल्खा तीन हफ्तों तक स्टेशन पर रहे, उन्हें लगा कि उन्होंने अपने परिवार के हर सदस्य को खो दिया है, लेकिन फिर उन्हें पता चला कि उनकी बहन ईसर और उनके बहनोई जिंदा हैं। वे अपनी बहन से मिले; परिवार को खोने के दुःख और इतने मुश्किल हालातों में अपने परिवार को वापस पाने की ख़ुशी के आँसू उनके गालों से लुढ़क रहे थे। वे अपनी बहन और बहनोई के साथ दिल्ली के पुराने किले में शरणार्थी शिविर में चले गए।
समय बहुत कठिन था और इसी कठिन समय ने एक हीरे को तराशने का काम किया। उन्होंने 10 रुपये के मासिक वेतन पर एक दुकान में सफाई कर्मचारी के रूप में काम करना और यहाँ तक कि जीवनयापन के लिए ट्रेनों से कोयला चोरी करना तक शुरू कर दिया। उनकी बहन ने पढ़ाई पूरी करने के लिए प्रेरित किया; यहाँ तक कि उन्होंने एक स्कूल में नौवीं कक्षा में दाखिला भी ले लिया, लेकिन पढ़ाई जारी नहीं रख सके। जीवन की परीक्षाएँ ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं थीI एक बार बिना रेलवे टिकट के यात्रा करने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, उनकी बहन को जमानत के लिए अपने गहने बेचने पड़े। इस घटना ने उनकी आँखें खोल दीं और फिर वे जीवन की हर चुनौती पर खरे उतरने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाने का फैसला किया, उन्होंने इतिहास रचने का फैसला किया और उन्होंने सिर्फ अपने आप का नहीं, बल्कि पुरे देश का नाम रोशन किया।
1962 में उन्होंने भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान निर्मल कौर से विवाह किया, जिनसे वे 1952 में सिलोन (श्रीलंका) में मिले थेI
तीन बेटियों और एक बेटे से भरा पूरा परिवार होते हुए भी उन्होंने 1999 में टाइगर हिल में शहीद हुए हवलदार बिक्रम सिंह के सात वर्षीय पुत्र को गोद लियाI
द फ्लाइंग सिख
उनकी गिरफ़्तारी की घटना के तुरंत बाद, उन्हें पता चला कि सेना में भर्ती चल रही है और पुरानी दिल्ली में एक कार्यालय स्थापित किया गया है। मिल्खा अपना रास्ता चुन चुके थे लेकिन दुःख इस बात का था कि उन्हें एक बार नहीं बल्कि तीन बार सेना भर्ती में ख़ारिज कर दिया गया। अंत में, उन्होंने अपने बड़े भाई से मार्गदर्शन लिया, जो पहले से ही सेना में थे और फिर वर्ष 1952 में वे सेना में चयनित हो गए। वे सिकंदराबाद में ‘इलेक्ट्रिकल मैकेनिकल इंजीनियरिंग सेंटर’ में तैनात थे। वहीं मिल्खा का परिचय दौड़ से एक खेल के रूप में हुआ जब 500 नए सैनिकों को एक अनिवार्य दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ाI उस प्रतियोगिता में मिल्खा छठे स्थान पर आयेI निर्णायकों को उनमें वो दिखा जो वे खुद भी अब तक नहीं देख पाए थे, एक धावकI उनकी गति देख कर उन्हें दौड़ का प्रशिक्षण दिया जाने लगा । इस तरह उनके जीवन ने एक लम्बी उड़ान भरीI
सिकंदराबाद में हुई ‘ब्रिगेड मीट’ ने उन्हें प्रतिस्पर्धा का अलग ही माहौल दिखाया, जहाँ वे लगभग एक हजार दर्शकों के सामने भागे। प्रतियोगिता से पहले, वे तत्कालीन तेज़ धावक शेर सिंह राणा से मिले। मिल्खा की नजरें उनके ब्लेजर पर थीं, उस पर ‘इंडिया’ अंकित थाI उन्हें वो ब्लेजर, इज्जत और प्यार चाहिए था जो राणा को मिल रहे थे। दौड़ के दौरान मिल्खा जीतने के लिए नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान के लिए भागे क्योंकि राणा ने उन्हें बहुत अपमानित किया था। वे राणा को हराने वाले थे लेकिन एक पत्थर उनके पैर में चुभ गया क्योंकि वे बिना जूतों के भाग रहे थे। ओलंपिक कैंप के दौरान नेशनल कैंप में उन्होंने राणा को हराया और अपना आत्म सम्मान वापस पा लिया। जीत उनके लिए आसान नहीं थी। राणा जानते थे कि केवल मिल्खा ही उन्हें हरा सकते हैं, इसलिए उन्होंने अपने कुछ समर्थकों के साथ अपने जूतों के निचे लगी कीलों से मिल्खा के पैरों को घायल कर दिया। कीलों से हुए छेदों से खून निकलने लगा; मिल्खा असहनीय दर्द में थे और वे उठने में भी असमर्थ थे । लेकिन वे जानते थे कि बदला कैसे लेना है, वे उठे और उन्होंने खुद अपनी पट्टी की और मिल्खा दौड़े। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ रहे थे खून के निशान उनके दर्द की गवाही दे रहे थे, उनकी पट्टियाँ उधड़ गईं, लेकिन वे रुके नहीं। मिल्खा ने दौड़ जीती और हमारे दिल भी।
मिल्खा सिंह ने 1956 मेलबर्न ओलंपिक की 400 मीटर प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व किया। अवसर बहुत बड़ा था; वे अपने जीवन में पहली बार भारत का प्रतिनिधित्व करने और हवाई यात्रा करने के लिए उत्साहित थे। हालाँकि वे कोई भी पदक घर नहीं ला सके, लेकिन वह यात्रा उनके लिए एक बहुत बड़ा सबक थी।
वे जानते थे कि अब उन्हें अपने आप को और मजबूत करना होगा। वे स्वर्ण चाहते थे, वे तिरंगा फहराना चाहते थे, वे जीत चाहते थे। उन्होंने 1958 में कटक में आयोजित भारत के राष्ट्रीय खेलों के दौरान पूरी दुनिया को अपनी मेहनत की झलक दिखाई। उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ में कीर्तिमान बनाए, वे अपने दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति के बल पर भारत के सबसे तेज धावक बन गए।
मिल्खा सिंह को 1958 के एशियाई खेलों में उनकी सफलता के बाद सिपाही से जूनियर कमीशंड अधिकारी के रूप में पदोन्नत किया गया। यह 1958 में राष्ट्रमंडल खेलों में उनकी जीत थी जिसने उन्हें सबका चहेता बनाया और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई। जकार्ता, इंडोनेशिया में आयोजित चौथे एशियाड 1962 एशियाई खेलों में उन्होंने 400 मीटर और 400×4 रिले में भी स्वर्ण जीता।
1962 में भारत और पाकिस्तान दोनों ने विभाजन के घावों को भरने के लिए भारत-पाक खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया, मिल्खा इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने में अनिच्छुक थे। उनके पास अपने कारण थे, वे विभाजन की यादों से डरे हुए थे, पाकिस्तान जाना उन्हीं यादों को कुरेदने जैसा था। लेकिन वे भारत के सबसे पसंदीदा खिलाड़ी थे और उन्होंने जल्द ही जान लिया कि बात उनकी नहीं देश की हैI अपनी यात्रा के दौरान वे अपने गाँव गए और अपने बचपन के दोस्त से मिले, यह अनुभव बहुत ही दर्दनाक था, विभाजन की यादों ने उन्हें घेर लिया। पाकिस्तान में हुई दौड़ में उन्होंने वहाँ के सबसे तेज़ धावक अब्दुल खालिक को हरा दिया और तब पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने उन्हें पदक देते हुए धीरे से उनके कान में पंजाबी में कहा, “आज तुम दौड़े नहीं, उड़े होI” ख़िताब के साथ-साथ मिल्खा पाकिस्तान से “मिल्खा सिंह – द फ्लाइंग सिख” शीर्षक भी लाएI
स्वर्णिम सपना
रोम ओलंपिक 1960 ने मिल्खा और भारत दोनों को पदक जीतने का एक और मौका दिया। मिल्खा ने खुद को पूरी ईमानदारी से तैयार किया; उनकी नजरें पदक पर थीं। हर बीतते दिन के साथ मिल्खा ने क्वार्टर फाइनल तक अपनी रफ़्तार बेहतर कर ली और सेमीफाइनल में उनकी रफ़्तार एक सेकंड से ज्यादा सुधर गयी। उन्होंने 45.9 सेकंड में दौड़ पूरी करी, अमेरिका के ओटिस डेविस से पीछे रह गए और चौथे सबसे तेज धावक बने।
पूरा देश उनके लिए प्रार्थना कर रहा था, वे निस्संदेह फाइनल में जाने वाले सबसे बेहतरीन प्रतियोगी थे। पूरा देश रेडियो और टेलीविज़न के आगे बैठा था सब मिल्खा की जीत के प्रति आश्वस्त थे। वे जानते थे कि केवल मिल्खा देश के इस सपने को संभव कर सकते हैं। पूरा स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था, लोग अपने पसंदीदा धावकों का प्रोत्साहन कर रहे थे और सभी नामों के बीच एक नाम काफी स्पष्ट था और वह ‘फ्लाइंग सिख’ का था। उनकी कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया, वे एक अंतर्राष्ट्रीय सनसनी बन गए। लेकिन मिल्खा कुछ नहीं सुन रहे थे, उन्हें तो सिर्फ अपने धड़कते दिल की आवाज़ आ रही थी; वे जानते थे कि यह उनके देश के सम्मान का सवाल था। सभी धावकों को अपना-अपना स्थान मिल चुका थाI मिल्खा को छठा स्थान मिला, इसका मतलब है कि वे सामने खड़े थे और बाकी पाँचों प्रतिभागी उनके पीछे थे। पीछे खड़े प्रतिभागियों को सामने खड़े धावकों की गति और स्थिति का जायज़ा लेने का मौका था, लेकिन मिल्खा को ऐसा कोई फायदा नहीं हुआ। दौड़ शुरू हुई, मिल्खा बड़े ही तेज़ रफ़्तार से भाग रहे थे। वे अग्रणी थे; अचानक उनके दिमाग में एक विचार आया, क्या वे इतना तेज़ दौड़ रहे थे कि शायद दौड़ पूरी भी न कर पायें इस विचार के साथ उन्होंने अपनी गति को थोड़ा धीमा कर दिया और अपनी बाईं ओर देखाI वे आज भी इसे अपने जीवन की अपनी सबसे बड़ी गलती कहते हैं। तीन अन्य प्रतियोगियों ने उन्हें पछाड़ दिया। वे तीसरे स्थान पर जीते प्रतिभागी से केवल 0.1 सेकंड धीमे थे और इस तरह उन्होंने प्रतियोगिता में चौथा स्थान हासिल किया। पदक न मिलने का अफसोस आज भी उनके साथ है। वे पदक नहीं ला सके, लेकिन उन्होंने अपने परिश्रम से देश को निश्चित रूप से गौरवान्वित किया।
60 साल बाद
मिल्खा सिंह को 1958 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। 2001 में उन्होंने प्रतिष्ठित ‘अर्जुन अवार्ड’ को यह कह कर लेने से मना कर दिया कि यह युवा प्रतिभाओं को पहचान दिलाने के लिए है, उनके जैसे लोगों को नहीं। वे 1998 में पंजाब शिक्षा मंत्रालय में खेल निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। उनके सभी पदक देश को दान किए गए हैं। पहले उन्हें नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में प्रदर्शित किया जाता था, लेकिन बाद में रोम ओलंपिक के दौरान पहने गए जूते की जोड़ी के साथ पटियाला में खेल संग्रहालय में ले जाया गया। 2012 में, उन्होंने एडिडास के जूते दान किए जो उन्होंने 1960 में 400 मीटर फाइनल में पहने थे।
मिल्खा सिंह ने अपनी बेटी सोनिया सानवल्का के साथ 2013 में अपनी आत्मकथा, “द रेस ऑफ माय लाइफ” लिखीI इस पुस्तक में उन सारे दुखों और कष्टों का वर्णन है जो उन्होंने जिंदगी भर झेलेI इस किताब ने 2013 में उनके जीवन पर बनी फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ को प्रेरित किया। मिल्खा सिंह ने फिल्म के अधिकार सिर्फ एक रुपए में बेचे, लेकिन एक खंड डाला कि ‘मिल्खा सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट’ को मुनाफे का एक हिस्सा दिया जाए। इस ट्रस्ट की स्थापना 2003 में गरीब और जरूरतमंद खिलाड़ियों की मदद करने के उद्देश्य से की गई थी।
सितंबर 2017 में, लंदन में मैडम तुसाद के मूर्तिकारों द्वारा निर्मित उनकी मोम की प्रतिमा का अनावरण चंडीगढ़ में किया गया। सिंह की प्रतिमा 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों में अपने विजयी दौड़ के दौरान की है।
हम मिल्खा सिंह को सलाम करते हैं कि उन्होंने देश को शौर्य का एक अलग ही मार्ग दिखाया। उन्होंने हमें सिखाया कि युद्ध जीतना राष्ट्र को गौरवान्वित करने का एकमात्र तरीका नहीं है। देश के लिए पदक लाना और तिरंगा फहराना भी राष्ट्र को गौरवान्वित करता है। उन्होंने साबित कर दिया कि शौर्य का कोई निश्चित मार्ग नहीं है, उन्होंने अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त किया और साहस और शक्ति का प्रतीक बन गए। मिल्खा सिंह पूरी दुनिया के लिए एक जीते जागते नायक हैं; जीवन में इतने कष्ट उठाने के बाद भी न तो उनका दिल और न ही उनका शरीर बूढ़ा हुआ। 91 साल की उम्र में भी उनके हौसले हमेशा की तरह बुलंद हैं। उस हार के 60 साल बाद, आज भी वे उस चीज़ का इंतज़ार कर रहे हैं जो उन्होंने रोम में खोया था – स्वर्णI